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सितंबर, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

" बस यूँ ही "

मेरे घर का दरवाजा अब भी , तुम्हारा  ही  इंतजार करता है, आकर जबसे हुआ जाना तेरा , आने का ही ऐतबार करता है / तुम्हारी रुस्वयियों पे हमें , जमाना भी शर्मसार करता है/ एक बार ही एके देख लो इसे, ये दिल तुम्हे ही प्यार करता है/ गर्दिशे-ख़ाक में मिलने से पहले , दीदार-ए-अख्तियार करता है/ है मौत का दिन मुकम्मल फिर क्यूँ , जिंदगी को जार-जार करता है/  मेरे घर का दरवाजा अब भी , तुम्हारा  ही  इंतजार करता है,

यह मधु का प्याला रीत गया,

यह  मधु का प्याला रीत  गया, अब तो सारा जीवन बीत गया / मृदु मधु रस की मीठी बातें, मधुर मिलन की बीती रातें / लघु जीवन की क्षणिक जीत , मन मंजुल का मृदुल गीत / अब तो बीत वह अतीत गया  मन से हरा मन जीत गया यह  मधु का प्याला रीत  गया, अब तो सारा जीवन बीत गया / वे अपने सारे छूट गये , वे सपने सारे टूट गये / जीवन के इस करुण मोड़ पर , रही पथ पर निठुर छोड़ कर / जाने कहाँ मेरा मीत गया , रह आज अधूरा गीत गया / यह  मधु का प्याला रीत  गया, अब तो सारा जीवन बीत गया /

"?" क्यूं हुआ मेरा जन्म,

क्यूं हुआ मेरा जन्म, क्या था मेरा अभिशाप, किस कर्म फल का यह प्रायश्चित , जिसे मैं घुट-घुट कर , मर-मर कर जी रही हूँ ?? घर -बाहर हर जगह , यह महा विभेद! 'नारी उत्थान ' अधिकारों की समानता , कितना मृदु -तीक्ष्ण व्यंग्य , नारी के द्वारा ही , नारी को अभिशापित करने की क्रूर प्रथा!! धन्य है वह (नारी) जिसे मार दिया गया, जन्म से पहले ही , जिसे उबार दिया गया ! रचा गया फिर एक न्य सिद्धांत भ्रूण हत्या को , संवैधानिक पाप करार दिया गया ! वाह ऱी सभ्यता! तू और मैं दोनों में कितनी समानता है ? दोनों की हत्याएं हो रही हैं , और मूक होकर हम रो रही हैं , क्योंकि हमारा "जेंडर" एक ही तो है!

शब्द ,

शब्द, ध्वनि व अर्थ में, रखता है विलक्षण अस्तित्व . शब्द, जीवन व कर्म में प्रकट करता है यथार्थ व्यक्तित्व . शब्द , उत्पन्न करता है अंतर्मन में संशय -विस्मय . शब्द , हो जाया करता है प्रायः बहु -अर्थी गह्वर ,रहस्यमय . शब्द , स्थापित करता है जाने -अनजाने कितने ही सम्बन्ध शब्द , विच्छेदित करता है कितने ही पुराने किये हुए अनुबंध. रचनाकाल :- २२ मार्च १९९९ , कोरौना, सीतापुर (उ.प्र.)

उल्फत -ए-रुसवाई

उल्फत -ए-रुसवाई  में  जो  मिली  जुदाई , तन्हाई  में  जीने  की  आदत  सी  हो  गयी ...............! गुजरे  हैं  जिन्दगी  के  उस  मुकाम  से  , हर  गम  पीने  की  आदत  सी  हो  गयी ..................! अब  तो  बस  दिए  हुए  उन  जख्मों  को , यादों  में  सीने  की  आदत  सी  हो  गयी .................! खुद  मेरी  मंजिल  मालूम  नहीं  मुझे , भीड़  में  खो  जाने  की  आदत  सी  हो  गयी ............! ये  ज़िंदगी  तो  अब  मुकद्दर  बन  गयी , सजा -ए - मौत  पाने  की  आदत  सी  हो  गयी . .......! सैयाद  तेरा  दाम  कितना  ही  नाजुक  हो , इस  में  फडफड़ाने   की  आदत  सी  हो  गयी ...........! उल्फत -ए-रुसवाई में जो मिली जुदाई , तन्हाई में जीने की आदत सी हो गयी ....... ........ .!

सृजन

तोड़ दो सपनो की दीवारे, मत रोको सृजन के चरण को , फैला दो विश्व के वितान पर, मत टोको वर्जन के वरण को ! जाने कितनी आयेंगी मग में बाधाएँ, कहीं तो  इन  बाधाओं का अंत होगा ही . कौन सका है रोक राह प्रगति की , प्रात रश्मियों के स्वागत का यत्न होगा ही ! प्रलय के विलय से न हो भीत, तृण- तृण  को सृजन से जुड़ने दो नीड़ से निकले नभचर को अभय अम्बर में उड़ने दो, जला कर ज्योति पुंजों को , हटा दो तम के आवरण को , तोड़ दो सपनो की दीवारे, मत रोको सृजन के चरण को!

यदि होते न लोचन

व्यर्थ होता कलियों पर  भ्रमरों का गुंजन , व्यर्थ होता ऋतुराज का  धरा पर आगमन/ व्यर्थ होता मयूरों का नर्तन, कौन सुनता उरों का स्पंदन, यदि होते न लोचन \ श्रृंगार  सुषमा हीन  पुष्प पल्लवी होती , यह प्रकृति सुंदरी , विधवा सी रोती,हेतु अस्तित्त्व यह  मौन धरा सोती  अर्थ हीन होता  सृजेयता का सृजन , यदि होते न लोचन \

"पुष्प की आत्मकथा "

प्रात ही मैं   रवि रश्मियों से  होकर आलोकित / जीवन में मृदुल  मुस्कान भरने हेतु , हुआ था मुकुलित/ नव चेतना लाने को नव उमंग भरने हेतु , करने को मन पुलकित/ आशा थी  जीवन के लघु पलों में , इतिहास रचूंगा / बनूँगा मैं  किसी के जीवन का आधार, स्व को न निराश करूंगा/ जोडूंगा एक नया  अध्याय , नव युग का विश्वास बनूँगा / पर झंझा के  तीक्ष्ण थपेड़ों ने  अंग - प्रत्यंगों को कर दिया विदीर्ण / आशा के प्रतिकूल  रहा निराशमय जीवन  तन मन हुआ छीर्ण  व्यतीत हुए तीनों काल, आलम्बन भी अब , हो चला जीर्ण / भाग्य का अभीशाप कहूं  या पूर्व जन्म का प्रायश्चित  या तो हुआ न वनमाली को  गोचर , या राह गया मैं अवसर से वंचित / बन सका न कृपा पात्र किसी का  अटवि में पड़ा रह गया कदाचित  कौतूहल से होकर भ्रांत, प्रारब्ध को लब्ध मान, जीवन कर्म को कर्तव्य जान  निर्वाद से होकर भ्रांत , हेतु अस्तित्त्व की पहचान , कर रहा मैं जीवन दान / यही है मानव तेरा भी जीवन  मानवता हेतु , अब तू भी  कर ले लक्ष्य संधान / हे! अतिगव, कृतान्त से अ

"अतीत के अंश "

अतीत की स्मृति लहरी,  क्यों कर तरंगित होती है?  निशीथ की इस बेला में,  क्यों व्यथा व्यथित बोती है?  पंथ है जब पथ पर गतिज ,  फिर क्यों यह बाधित होता है,  व्यतीत कल के कलरव से,  क्यों यह अंतस व्यथित होता है? वेदना की व्यथा से होकर व्यथित ,  लक्ष्य पथ से क्यों हो रहा विचलित,  क्या कर्म पथ था त्रुटिपूर्ण जो अब  निर्वाण पथ से कर रहा विछ्लित क्या कुछ शेष रहा विशेष जो,  करता तनमन को तपित,  इस अटवि में आकर भी तू  भ्रमित, तृषित सा है शापित जीवन के निर्जन कानन में ,  करता था नित नाव नंदन /  श्रृद्धा पूर्ण था जीवन समर्पण ,  भावना पूर्ण था देव वंदन / था शांत स्थिर तटस्थ पर,  करता था नूतन अभिनन्दन /  सुख-दुःख ,राग द्वेष से हीन,  मधुकामना से निर्लिप्त मन / निष्पादित अश्रांत जीवन ,  निर्वेद के रह्स्योंमीलानोद्यत /  करता था मैं जीवन तपस्कर,  लक्ष्य संधान हेतु था उद्यत / जीवन लक्ष्य था मात्र निर्वाण ,  कर्तव्य पथ पर था प्रबाध/  गतिमान था महाकाल का चक्र ,  आशा पूर्ण था जीवन निर्बाध / जीवन की इस निशीथ बेला में