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सितंबर, 2014 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बस भी करो

तुमने लिखा पानी, कहीं जलजला था, पर आदमी की आँखों का पानी मर चुका था। तुमने लिखी पीड़ा, कराहों और चीख़ों से गूँजते रहे सन्नाटे। तुम जब लिखने लगे भूख; जबरन रोकना पड़ा मुझे तुम्हारा हाथ बर्दाश्त के बाहर थी उस नवजात की चीख़ उसकी माँ को अभी मिटानी थी बहशियों की भूख।  

प्रेम

तुम्हें मुझसे ही क्यों प्रेम होना था; किस्मत का रूठ जाना अच्छा था, इन सांसों का टूट जाना अच्छा था। भला कोई बिना प्रिय के भी जी पाता है; फिर यह प्रेम यूँ ही क्यों हो जाता है। मुझे मेरी पीड़ा का तो मलाल नहीं, पर तुम्हारी वेदना मुझे व्यथित कर जाती है। प्रिये ! मैं तुमसे कहूँ, भुला दो मुझे; पर क्या मुमकिन होगा, तुम्हें भूल जाना मेरे लिए।