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अंतिम कविता का पहला अंश

ओह ! इन चमकते रेत के दानों में  आज भी हमारे साथ बिताये  पलों की चमक वैसी ही है । और  जेहन में उन ठहरे हुये लम्हों की यादें बिल्कुल वैसी ही ताजी हैं जैसे अभी खिली हुयी गुलाब की कली । आह !  कितना सुखद था ये बीता हुआ ख्वाब; जिसमें पल भर के लिये तुम मेरे पास आये तो सही । क्यों  मैं देख रहा हूँ खुली आखों से  अब भी तुम्हारा ही ख्वाब । कि जैसे तुम गये ही नहीं हो कहीं। हाँ  मैं फिर कहता हूँ  कि मैं नहीं कह सकता  उन शब्दों को जो  तुम सुनना चाहते हो । बस  तुम पढ़ लो मेरे खामोश  लबों पर थिरकते हुये  वो अपने प्रिय शब्द ।