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स्त्री

 चुप रह जाती हूँ सुनकर तुम्हारे तिरस्कृत वचन इसलिए नहीं कि तुम पुरुष हो, बल्कि इसलिए  सम्बन्धों और संस्कारों की श्रृंखला, कहीं कलंकित न हो जाए  समर्पण की पराकाष्ठा । मुझे भी आता है तर्क-वितर्क करना, पर चुप रह जाती हूँ कि कौन करेगा सम्पूर्ण सृष्टि का संवर्धन।  स्त्री ही बन सकती है स्त्री, नहीं हो सकता विकल्प कोई स्त्री का । कहीं बिखर न जाय

तुम तीरे नज़र चलाओ तो सही

 तुम तीरे नज़र चलाओ तो सही; हम जिगर निशाने पर लिये  बैठे हैं। तुम से भले तो गैर निकले यहाँ,  तुम्हारे दिये जख्म दिल पे लिए बैठे हैं। इंतिहा क्या होगी सितमों की अब, हर इक इल्जाम सर पे लिए बैठे हैं। तेरे बारे बहुत सुना था  शहर में, हर इक शिनाख्त हम  किये बैठे हैं। बेवफाई का आलम क्या होगा अब, यहाँ हर इक चोट छुपाकर बैठे हैं।

अमरबेल

ये जो कैक्टस पर दिख रही है अमरबेल , जानते हो यह भी परजीवी है ठीक राजतन्त्र की तरह।   लेकिन लोकतंत्र में कितने दिन पनप सकेगी ये अमरबेल , खत्म होगा इसका भी अमरत्व आखिर एक दिन

चाहना

 उसने कब मुझे ही मुसलसल चाहा, जब भी चाहा - अलैहदा ही चाहा। अहदे वफ़ा की क्या दरकार करें, हमने भी उसको इस कदर न चाहा। चाहत उल्फत की थी दोनों दिलों में , मगर किसी ने भी किसी को न चाहा।   मगरूर थे सब अपनी खुद्दारी में, ज़माने भर ने ज़माने को न चाहा।   कितनी ख़ुशनुमा होती ये दुनिया, बन्दे ने गर बन्दे को होता चाहा।

मुझे स्त्री ही रहने दो

मैं नहीं चाहूंगी बनना देवी मुझे नहीं चाहिए आठ हाथ और सिद्धियां आठ।   मुझे स्त्री ही रहने दो , मुझे न जकड़ो संस्कार और मर्यादा की जंजीरों में। मैं भी तो रखती हूँ सीने में एक मन , जो कि तुमसे ज्यादा रखता है संवेदनाएं समेटे हुए भीतर अपने।   आखिर मैं भी तो हूँ आधी आबादी इस पूरी दुनिया की।

परिवर्तन

कोई युद्ध  अंतिम नहीं होता, कोई क्रांति नहीं होती आखिरी। शांति का पल नहीं ठहरता देर तक, न ही ठहरती है हवा बदलाव की। संघर्ष पैदा हो जाता है भूख के पैदा  होते ही। वो फिर चाहे  सर्वहारा का संघर्ष हो या फिर शोषितों का सत्ता के खिलाफ।  समय समय पर होते रहेंगे  युद्ध और क्रांतियां, क्योंकि परिवर्तन  नियम जो है प्रकृति का।

मतलब की दुनिया में सब मतलब के साथी

 मतलब की दुनिया में सब मतलब के साथी सबके जीवन की अपनी अलग कहानी। एक दुःख जाए,एक दुःख आये सुख-दुःख आते जाते -दुनिया है फानी ; होय  उजियारा जब जले  तेल संग बाती। मतलब की दुनिया में सब मतलब के साथी---------- किसने कब किसके दुःख को बांटा सबने ही केवल सुख को बांटा खुद की छाया ही साथ न दे , जब जब अँधियारा है आता। छूटे साँस जब एक तो दूजी है आती।   मतलब की दुनिया में सब मतलब के साथी---------- करें खुशामद मौका पड़ते ही पकड़ें पैर मतलब पर न कोई अपना ना  कोई गैर, मिलते ही पद-पैसा सब सम्बन्ध बनाते हैं मिले दूध गाय से तो सभी लात खाते हैं, भले बात होय तीखी है हित  की भाती।   मतलब की दुनिया में सब मतलब के साथी-----------

औरतें

 कब  उठ जाती है सुबह , पता ही  नहीं चलता! बच्चों  का टिफिन  और बाबूजी की दवायें और पति के कुनमुनाने तक सुबह की चाय, कैसे तैयार कर  लेती है यह सब। इतना सब  करने पर भी, क्या कुछ बचा रहता भी है उसके खुद के लिए? या केवल  जली भुनी बातें बिल्कुल उसके हिस्से की रोटियों जैसी, आती है हिस्से में । क्यों  भेज देते हैं पिता अपनी बेटी को  दूसरे घर में यह कह कर कि अब तुम्हारा है वह घर जो कभी शायद ही हो पाता है उसका पहले जैसा घर।

चरागों की फितरत ही है जलना

 जहां रौशन रहे,बस यही काफी है, चरागों की फितरत ही है जलना। जलजला आए या कि तूफान आए बहारो में तो गुलों का ही है खिलना। भले ही फूटे बम हर इक बाजार में, खिलौने पर बच्चे को तो है मचलना । राहे गुजर की ठोकरों से क्या घबराना, बढ़ना-गिरना - गिर कर है सम्भलना।

चलाते हैं नश्तर, जिगर पर .....

अदा ही कुछ ऐसी है उनकी;  चलाते हैं नश्तर, जिगर पर धीरे-२........ मुराद मांगी थी, मौत बख्श दें;  पिलाते हैं प्याले, जहर भर धीरे-२........ दीदा-ए-दीदार तरसता रहा; करते हैं शिकार, नजर भर धीरे-२....... था जाहिर के बेमुरव्वत हैं वो; जुस्तजू में मरते रहे, उम्र भर धीरे-२...... आएगा तरस मुकद्दर को कभी; जीते रहे लिए एक, सबर भर धीरे-२...... अदा ही कुछ ऐसी है उनकी; चलाते हैं नश्तर, जिगर पर धीरे-२.......

अजब सा रिश्ता है अब मेरा तन्हाइयों से ....

अजब सा रिश्ता है अब मेरा तन्हाइयों से ,       जब भी टूटता हूँ , मुझको थाम लेती हैं।             माना के मुकद्दर को यही मंजूर था, मगर , दुनिया तो  एक तुझे ही इल्जाम देती है। गुजर तो रही है तेरे बगैर ये जिंदगी , हर एक साँस अब मेरी जान लेती है। कत्ल की साजिश में यूँ तो और भी लोग थे ,   अजीजों में खल्क बस तेरा नाम लेती है कौन पूछता है उदासी का सबब मुझसे जिंदगी कदम-कदम पे  इम्तिहान लेती है। कायनात नहीं बख्शती है किसी को भी, वक्त आने पर सभी से इंतकाम लेती है

माँ- समय की चाक पर

 यह कैसा समय है तीन-तीन बेटे हैं फिर भी माँ को भूखा ही सोना पड़ता है। ऐसा नहीं कि बेटों को माँ की  फ़िक्र नहीं , दवा-पानी, भोजन-बिस्तर सब चीजों की व्यवस्था कर रक्खी है तीनों ने अपने-अपने हिस्से और हिसाब से। लेकिन तीनों के पास अब समय नहीं जो माँ से एक बार भी हाल-चाल पूछें। अब कोई नहीं आता उनके पास पूछने कि - माँ, खाना और दवाइयाँ ले लीं  हैं समय पर? ये वही माँ है जो बेटों की जरा सी रोने की आवाज पर अपना कलेजा मुँह में ले आती थी , उनके पिता से करती थी शिफारिश उनकी हर जिद को पूरी कर देने की, अपनी ख्वाहिशों को दबाकर। शायद अब बदल गए हैं शब्दों और संबंधों के मायने समय के साथ। या नहीं पड़ती है बेटों को माँ की जरूरत अपनी जिद पूरी करवाने की, वैसे भी  अब पिताजी तो हैं नहीं , अब मालिकाना हक  तो बेटों के पास ही है। हो गया है समय शातिर या ये लोग जिनको नहीं पड़ती है जरूरत किसी से किसी को सब कुछ तो मिल जाता है क्योंकि मतलब होने पर "गधे को बाप" बानाने  की कला   चली आ रही है सदियों से।

होली मुबारक

 किससे कहें कि होली मुबारक,  जनता को बस गोली मुबारक।  नीलाम हो गई है सियासत, बगुलों को अब बोली मुबारक।  छप्पन भोग खाएं दलाल-दल्ले, फकीर को तो झोली मुबारक।  कोठियां रौशन हैं मक्कारों की, धनिया की तो खोली मुबारक।  खैर जिस -जिसकी जैसी हो ली, अपनी -अपनी टोली मुबारक।

सनकी शासक

 सत्ता की सनक,  या सनकी शासक; बिन पेंदी  लोटा या बिन प्रेस प्रकाशक।  कभी राज्य कभी प्रांत, बदल कर नाम; बन जाता है हर काम। हवा को वायु, वय को आयु; कहने से क्या, मृत्यु टल जाएगी? बेघर को घर और भूखे को रोटी मिल जाएगी। जनता का 'कर' पूँजीपति के कर में देकर, देखो कैसे चलती है सरकार। नाम है सरकार का, काम है व्यभिचार का; लूट खाएं मिलकर ठेकेदार।  काम वाले सब खाली, घर बैठ बजाएं ताली। भुखमरी,बीमारी  सब है बरकरार।  नवयुवक भटक रहा राहों में, जनता मर रही कराहों में; देख रहे हैं बनकर लाचार।

गुजारिश

मोहब्बतें दिलों में इस कदर पलें,     बाप की अंगुली थाम बचपन चले।   क्या गम है कि पास में दो निवाले,   रोटी दो जून की सबको ही मिले।     करे न कोई किसी पे जुल्मो-सितम, चरागे -नफरत न अब दिल में जलें। कुछ न मिलेगा मजहबी रंजिशों से, सभी कौम चैनो -अमन से रहलें।   सुपुर्द-ए -खाक होना है एक दिन, दुनियादारी में क्यों किसी को छले।    

ये हवा, ये जंगल, ये पानी

ये हवा, ये जंगल, ये पानी हुए बीते दिनों की कहानी।  दौलत का तू साहूकार है,  ये दौलत तो है आनी-जानी। नदी, जंगल और पहाड़,  इनसे न कर मन- मानी   कल की नस्लों के लिए सोच, कैसे कटेगी वो जिंदगानी। ढा लिए कई सितम तूने, अब नहीं चलेगी जो ठानी।

हां, मैं तुम्हारे प्रेम में हूं

 हां, मैं तुम्हारे प्रेम में हूं! तुम्हारे हांथ से गूंधे हुए  आंटें में सना हुआ प्रेम, या कमीज़ में टंकी हुई बटन सा  बंधा हुआ प्रेम, सुबह - सुबह झाड़ू की बुहार के साथ उड़ता हुआ प्रेम या फिर उड़द की दालके कंकड़ सा किरकिरा प्रेम। हर एक उधड़ते हुए रिश्ते की तुरपन करता हुआ प्रेम  या मुहल्ले की काकी- ताई  से हसी - ठठ्ठा करती मीठी तीखी बतियों का प्रेम।   बच्चों के माथे पर  काले टीके और  गालों पर दी गई पुचकारियों का प्रेम , रोज बिस्तर की बदली चादर  पर बिछा हुआ प्रेम  या सिरहाने की जगह पर तुम्हारी गोद में रखे मेरे सर पर तुम्हारे मखमली हाथों का प्रेम। तुम हो तो ये सब है और  इन सब के होने से ही प्रेम है, हां, मैं तुम्हारे प्रेम में हूं।

चैन -ओ-अमन का गुलिस्तां वो, सहरा में भी सजाए हुए हैं।

 उनके दीदार -ए- निस्बत में,   कब से राहें बिछाए हुए हैं।     इश्क का असरार तो देखिये ,   उजलत में सब भुलाये हुए हैं।   है अभी गुफ्तगू की गुंजाइश,     हम भी उम्मीद लगाए हुए हैं।   तीरगी फैली है जहाँ में , तब से चराग जलाए हुए हैं। चैन -ओ-अमन का गुलिस्तां वो, सहरा में भी सजाए हुए हैं।

पुरुष सत्ता

 पुरुष मन में भी  होता है स्त्री का कोना, और एक स्त्री  भी होती है पूरा पुरुष।  पहली बार  पुरुष ने जब देखा था, स्त्री के भीतर का पुरुष।  शायद तभी से उसने पृथक कर ली अपनी सत्ता और शुरू कर दी स्त्री-पुरुष में अंतर करने की मुहिम ।

विद्रोह

 मुझे मंजूर है हर वो सजा  जो सर्वहारा वर्ग के हक में उठाई गई  उस आवाज के लिए तय है। हाँ मुझे भले ही विद्रोही घोषित कर दिया जाए  इस सभ्रांत समाज में। पर जबतक  ये शोषण रहेगा मैं हर क्षण  अपना विरोध दर्ज  कराता रहूँगा अंतिम शोषण तक।

यादें उन दिनों की

 हाँ, देखो कितनी नर्म और  शर्मीली धूप। जैसे चिलमन से दीदार होता हुआ तुम्हारा मुखड़ा हो। जानती हो उन दिनों आँगन में या छत पर बैठकर  करता रहता  तुम्हारा इंतजार,  और तुम्हारे आते ही गोद में रख देता था सिर, जिसमें तुम्हारी  नर्म अंगुलियाँ करने लगती थी चहलकदमी आदतन। अब  इन दिनों न तो वह शर्मीलापन है धूप में , और न ही तुम्हारे आने की आहट। है तो बस  शेष एकांकी  जीवन और प्रतीक्षा  भर।