प्रिये ! तुम जब से चले गये; रजनी निज मन को व्यथित कर; थिर अन्तस् को स्वर प्लावित कर मानो निश्छल प्राण छले गये ! प्रिये ! तुम जब से चले गये; नहीं सुध है अब जीवन की, न ही कामना कोई मन की, किंचित तुम तो भले गये ! प्रिये ! तुम जब से चले गये;
आपके विचारों का प्रतिबिम्ब !