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जुलाई, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

निश्छल प्राण छले गये !

प्रिये ! तुम जब से चले गये; रजनी निज मन को व्यथित कर; थिर अन्तस् को स्वर प्लावित कर  मानो  निश्छल प्राण छले गये ! प्रिये ! तुम जब से चले गये; नहीं  सुध है अब जीवन की, न ही कामना कोई मन की, किंचित  तुम तो भले गये ! प्रिये ! तुम जब से चले गये;

जब से पैदा होने लगे सिक्के !

पहले बोता था  गेहूं और  पैदा करता था गेहूं आदमी! जिससे पलता था यह आदमी !! भूल से  न जाने कैसे; बो गये कुछ  सिक्के एक दिन, फिर क्या था- गेहूं की जगह  जमीन  ने शुरू कर दिए पैदा करने सिक्के! अब नही उगती  गेहूं की वह फसल ! और भूखों मरने लगा  यह आदमी ! जब से  पैदा होने लगे सिक्के!

मेरी पीड़ा !

मेरी  पीड़ा; मुझको ही पी जाने दो , मेरे जीवन की मेरी ये घड़ियाँ मुझको ही जी जाने दो; उन स्वप्निल आशाओं के बिखरन की पीड़ा, तुम क्या जानोगे? मेरे उस सच के सच को तुम क्या मानोगे ? मान भी जाओ, पर मेरा  ही रह जाने दो! मेरी  पीड़ा; मुझको ही पी जाने दो !

समर्पण

तुम्हारा वह लाल गुलाब; आज भी उसी किताब में रखा है, पर उसकी हर एक पांखुरी और अधर-पत्र; सूखकर जर्जर और क्षीर्ण हो गये हैं! तुम्हारे उस अप्रतिम उपहार को; क्षीर्ण होने से न बचा सका ; और तुम्हारे वो अव्यक्त उदगार, आज भी मेरे लिए उतने ही रहस्य-पूर्ण बने हैं! क्योंकि मूक समर्पण की भाषा  मैं समझ न सका था; और उस भूल के प्रयाश्चित में मैं और तुम्हारा लाल गुलाब  दोनों ही रंगहीन हो गये !