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अगस्त, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

ये रेखाएं !!!

कुछ रेखाएं  जो विभाजन की परिभाषाएं; हमारे, उनके हम सभी के मध्य  निराशाएं! किसी अन्य की नहीं वरन अपनी ही कुंठित  अभिलाषाएं!! विभाजित करतीं, घर को, समाज को  अपनों को, फिर भी उपजाती जिज्ञाषाएं!!  क्यूँ खीचीं हैं हमने - आपने अपनों के लिए ये रेखाएं!! क्या वो मानव नहीं ; या उनके उर स्पंदन हीन हैं? उनका वैभव हमें रास नहीं, या वे मानव नहीं, मात्र दीन हैं! फिर क्यूँ मानव खींचता  ये दूरी की सीमायें ! कहीं भूगोल, कहीं पर समाज कहीं इतिहास से बनाता, वही पुरानी रेखाएं!! कहीं विचारों की; कहीं भावनाओं की, और कहीं पर व्यवहारों की; हर क्षण  बनती हैं दीवारें! हर जगह विभिन्नताएं !! धार्मिकता के नाम पर, राष्ट्रीयता के नाम पर सम्प्रदाय और  संघ के नाम पर  जाती और लिंग  के नाम पर, हमारी बनाई  हुयी ये दीवारें! हर बार ढह कर  हमें ही दबाएँ! दीवारें पुनः  साकार हो उठती हैं, पर हर बार घायल  मानवता ही होती है! फिर भी हम खींचते हैं...

त्राण

व्यथित है तू मन की व्यथा से; अतृप्त है तू आशा की तृष्णा से! कर्तव्य अधिकार की चिंता में; व्यथित है तू जीवन मृश्ना से !! उलझ गया जीवन के  प्रश्नों से; विक्षिप्त हुआ पथ के अश्नों से! माया-ममता से है व्योमोहित; "मैं" के मिथ्या अहम् से है गर्वित !! लेना ही लेना है तेरा लक्ष्य; नहीं भावना है समर्पण की ! व्यर्थ तू मानवता का प्रहरी; व्यर्थ है भाषा कर्म-अर्पण की!! कृतिका से चाहते हो निवृत्ति; धरो धरित्री सा  धीरज तुम; मत मुख मोड़ो देख विवृत्ति  कर दो सर्वस्व अर्पण तुम!

ग्लानि

क्षण भर के जीवन में हे मानव! तू क्यों मानवता से विमुख हुआ? करता निज बन्धु पर आघात; क्षुण धन हेतु पतनोन्मुख हुआ! लोभ-मोह-माया से होकर ग्रसित; जीवन में तू लक्ष्य विहीन हुआ ! खोकर निज अस्मिता को मानव, स्व पतन से तू दैन्य-दीन हुआ !! पाखंड-झूठ अन्याय में लिप्त हो; निज गौरव हानि से न म्लानि हुयी! मानवता पर करते अत्याचार, मानव तुझे तनिक ण ग्लानि हुयी !! जननी-जन्मभूमि पर कर रहा; तू नित-नित भीषण अत्याचार! कर रही आज मानवता कृन्दन, देख मानव का निर्लज्ज व्यवहार !!

अप्लाषिका

पुष्प में खोजता गंध-पराग; अवयव में खोजता जीवन राग! मृगमरीचिका में शीतल प्यास, कृतिका में कहाँ जीवन विश्वास!! पूषा तप्त अवनि पर कहीं जो, चिर शीतल-शांत छाँव मिले; झंझा से उजड़े नीड़ विहाग को, क्षण भर का ठहराव मिले! महा काल के काल प्रभंजन में, क्या कुछ अक्षुण रह पाया है? कौन दुस्तर जीवन पथ पर, तीक्ष्ण झोंके झंझा के सह पाया है? प्रलय पूर्व जो था शेष; शेष रहेगा प्रलय पश्चात! यह तो है व्यर्थ व्योमोह, है निर्वाण ही पूर्ण साक्षात्!!

क्षुधा

क्षुधाकुल होकर जब; भोजन हेतु लड़ना पड़ता है, जीवन के अश्मर पथ पर जब प्रस्तर बनाना पड़ता है! गीता का दर्शन, गाँधी का सत्य; बुद्ध की अहिंसा पीछे छूट जाती है! जब फावड़ा और कुदाल संग, जेठ की तपिश में कमर टूट जाती है! न  गौरव    गरिमा का ध्यान, न अस्मिता जाने पर ग्लानि होती है! उदराग्नि की शांति हेतु; अमानुषिकता पर न म्लानि होती है!! इस नीरस प्राण हेतु मानव; जब स्व सुता का मोल लगाता है! मानवता तृण-तृण हो जाती है, जब नारी को क्षुण धन से तोला जाता है

उदासी उस रात की - भाग -२

गुमसुम उदास है तब से यह चाँद; उस रोज जब चाँद आया था; तुम्हारी खिड़की पर! दरवाजे पर अपलक ठहरी हुयी आँखों में पाकर; किसी की प्रतीक्षा, ठिठक गया था चाँद; उस रोज जब चाँद आया था; तुम्हारी खिड़की पर! मानो तुम्हारी तपिस में झुलस गयी है, ज्योत्स्ना की स्निग्धता, और तबसे सुलग रहा है यह चाँद! उस रोज जब चाँद आया था; तुम्हारी खिड़की पर! चाँद को अब भी याद है वह पूनम जब तुम्हारी आतुरता और विह्वलता में हो गयी थी अमावस! उस रोज जब चाँद आया था; तुम्हारी खिड़की पर! पीला पड़ गया था वह भोर तक तुम्हारी प्रतीक्षा की निष्ठा और मिलन की उत्कंठा को देख कर! उस रोज जब चाँद आया था; तुम्हारी खिड़की पर! उदासी उस रात की - भाग -१ के लिए लिंक नीचे दिया है :- http://dhirendrakasthana.blogspot.in/2012/02/blog-post_28.html

नेह निमंत्रण

मेरा यह नेह निमंत्रण; कर लो तुम स्वीकार! द्वंद्व आज मंद न हो जाए; मन सागर की लहरों का! बरबस यूँ ही छलक न जाय; मधुरिम प्याला अधरों का!! पढकर नयनों की भाषा; व्यर्थ न जाने दो मनुहार, मेरा यह नेह निमंत्रण; कर लो तुम स्वीकार! प्रणय की भाषा से; चिर परिचय तुम्हारा है! अपराजिता है रजनी; कहाँ चाँद अभी हारा है !! भर कर नेह की हाला तुम; कर दो हृदय अभिसार, मेरा यह नेह निमंत्रण; कर लो तुम स्वीकार!

व्योमोहन: जीवन का

दूर तक; न अत्न का प्रकाश न राग की किरण! पूर्ण भू पर निशा का प्रभास; न आशा की किरण! व्योमोहित गति मंद व्यथित अंतर्मन! आक्रांत उर मति कुंद, श्रांत विच्छिप्त तन ! न भविष्य का  पथ आलोकित; न जीवन का आधार! न उर में उमंग; अपुल्कित मन, न कोई कर्म आभार! न कोई लक्ष्य; जीवन में न विश्वास! अर्थ हीन श्रम; निष्प्राण- निः श्वास !

प्रकृति का विघटन

चल रही धरा पर विध्वंश की कुल्हाड़ी, प्रकृति की देखो आज उजड़ रही फुलवाड़ी ! मानव कर रहा नित नव अनुसन्धान; नाभकीय विखंडन हो या अंतरिक्ष उड़ान! हो रही दूषित गौरव मयी गंगा पावन, विटप- विहग और वनचरों का हो रहा हनन ! चिर सौन्दर्य की चाह में व्यर्थ हो रहे प्रयोग; भौतिक विलास की चाह में लग रहे उद्योग ! धरा को शृंगार हीन कर, हो रहा निष्ठुर मानव; लिए जा रहा रसातल को बन हिरण्याक्ष दानव! प्रकृति के क्षरण से क्या होंगे परिणाम भयंकर; शरणागती था तू और बन गया स्वयं क्षयंकर ! क्षुधा पूर्ति हेतु हो रहा जीवों का क्रथन; देख क्रूरता सुतों की कर रही धरा रुदन ! चल रही आंधियां हो रहे भीषण प्रहार; विनाश हेतु बन रहे नित नव आयुधागार ! भूकंप हो या दैवी आपदाएं, ले रही निज प्रतिशोध; प्रकृति की कृति का जब-जब मानव करता प्रतिरोध!

आज फूलों को ही आंधियों से टकराना होगा!

आज फूलों को ही आंधियों से टकराना होगा!           लाख तूफाँ कोशिश करले;           विनाश की हदें पार कर ले,           बवंडर कितना ही तीव्र हो; आज  कश्ती  को भीच भंवर पार जाना होगा ! आज फूलों को ही आंधियों से टकराना होगा!           सदियाँ गुजर गईं विध्वंस में;           खिंच गईं तलवारें वंश-वंश में,            कर्म गीता का पढकर पाठ; अर्जुन को 'भारत' का इतिहास दोहराना होगा ! आज फूलों को ही आंधियों से टकराना होगा!          एक बार फिर आग दो मशाल को;          क्रांति पर्व में चढ़ा दो निज भाल को,          परिवर्तन है  चिर  नियम प्रकृति का; सृजन के पथ पर वीरों को कदम बढ़ाना होगा ! आज फूलों को ही आंधियों से टकराना होगा!  

चलाते हैं नश्तर, जिगर पर धीरे-२,

अदा ही कुछ ऐसी है उनकी; चलाते हैं  नश्तर , जिगर पर धीरे-२, मुराद मांगी थी, मौत बख्श दें; वो पिलाते हैं प्याले, जहर भर धीरे-२, दीदा-ए-दीदार तरसता रहा मैं; करते हैं शिकार, नजर भर  धीरे-२, था जाहिर के बेमुरव्वत हैं वो; जुस्तजू में मरते रहे, उमर भर  धीरे-२, आएगा तरस मुकद्दर को कभी; जीते रहे लिए एक, सबर भर  धीरे-२, अदा ही कुछ ऐसी है उनकी; चलाते हैं  नश्तर , जिगर पर धीरे-२,

बेवक्त किस्मत कोई मंजर दिखाती नहीं!

क्या अफ़सोस कि याद उनकी जाती नहीं; बेवक्त किस्मत कोई मंजर दिखाती नहीं! अब तो खलिश ही बाकि रही शब-ए-हिजराँ; जिन्दगी हिजरात की वजह बताती नहीं! बजीच-ए-अल्फात समझते थे मोहब्बत को, दास्ताँ-ए-हश्र जेहन से भुलाई जाती नहीं ! आना होगा उसे जब, वो आ ही जाएगी, मौत यूँ ही कमबख्त बेवक्त आती नहीं !

क्यों है इतना विह्वल मेरा मन!

क्यों है इतना विह्वल मेरा मन! सानिध्य तुम्हारा कुछ पल का है; यह तो क्षुण नंदन भर छलका है ! विचलित भविष्य है जीवन का, सोंच यह, तीव्र हो उठता स्पन्दन;  क्यों है इतना विह्वल मेरा मन! जीवन को चिर विकलता देकर; भ्रांत निशा आ रही अवसान लेकर! विरह वेदना से हृदय को भर देगी; अभी सुनहरी संध्या का है आलिंगन! क्यों है इतना विह्वल मेरा मन! पद चिह्नों का लहरों से मिट जाना; अकल्पनीयता का यूँ ही घट जाना, क्या कुछ थिर रह पायेगा जीवन में, असह्य हो जायगा यह विछ्लन; क्यों है इतना विह्वल मेरा मन!

जख्म महफ़िल में दिखाए नहीं जाते !

  लौटकर आने की हो उम्मीद जिनकी; वो राही भटके हुए बताये नहीं जाते ! आ ही जाते हैं शम्मा के जलने पर; परवाने कभी बुलाये नहीं जाते ! जब्त रहने दो जज्बातों को अभी, राहे मुसाफिर से जताए नही जाते ! जवाँ तो होने दो महफ़िल को जरा; साज-ए-गम अभी से बजाये नहीं जाते !  बेअदबी है , तन्हा दिल की नुमाइश, जख्म महफ़िल में दिखाए नहीं जाते !

उनका आना कुछ यूँ हुआ................

उनका आना कुछ यूँ हुआ, मेरे दिल से फिर वो जा न सके! गये वो, न जाने कहाँ होंगे; मगर दिल को हम समझा न सके! जाने वाला कब आया लौटकर; खुद को ये हकीकत बता न सके! खुली आँखों से देखे थे ख़्वाब; बिखरे जो फिर उन्हें सजा न सके! थी उन्हें तिजारत लफ़्ज़ों की; मगर लबों से हम जता न सके! उनका आना कुछ यूँ हुआ, मेरे दिल से फिर वो जा न सके!

उल्फत

उल्फत में वो हमसे कुछ बयाँ न कर सके; हम भी बे तक-अल्लुफ़ कुछ कम ही थे ! इशारों के कायदों का हमें तज़रबा न था; वे भी काबलियत-ए-अकीदा में कम ही थे ! आरजुएं बेजुबाँ ही तड़पती रही दिलों में, हसरत-ए-दिल बयाँ में दोनों कम ही थे ! जब्त कर लिए अपने-अपने जज्बातों को; दस्तूर-ए-इल्ज़ामात में कुछ कम ही थे !  

बैहर-ए-आज़ादी

 जो इन्सान मुक्य्यद है इशरत में, बैहर-ए-आज़ादी सरूर कैसे हासिल हो! जब अस्प मुतलक इना नहीं तो, खोकर चश्म-ए-नूर दीदार कैसे साहिल हो ! मुत्मईन है ज़िन्दगी बसर से फिर क्या; क्या शरारार के इल्ल्तो सिहत फाजिल हो ! नूर-ए-खुदा मोहम्मदी या पैगम्बरी क्या; अब्तर ही है वो कमतर भले ही काबिल हो !