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विद्रोह

 मुझे मंजूर है हर वो सजा  जो सर्वहारा वर्ग के हक में उठाई गई  उस आवाज के लिए तय है। हाँ मुझे भले ही विद्रोही घोषित कर दिया जाए  इस सभ्रांत समाज में। पर जबतक  ये शोषण रहेगा मैं हर क्षण  अपना विरोध दर्ज  कराता रहूँगा अंतिम शोषण तक।

यादें उन दिनों की

 हाँ, देखो कितनी नर्म और  शर्मीली धूप। जैसे चिलमन से दीदार होता हुआ तुम्हारा मुखड़ा हो। जानती हो उन दिनों आँगन में या छत पर बैठकर  करता रहता  तुम्हारा इंतजार,  और तुम्हारे आते ही गोद में रख देता था सिर, जिसमें तुम्हारी  नर्म अंगुलियाँ करने लगती थी चहलकदमी आदतन। अब  इन दिनों न तो वह शर्मीलापन है धूप में , और न ही तुम्हारे आने की आहट। है तो बस  शेष एकांकी  जीवन और प्रतीक्षा  भर।