हाँ,
देखो कितनी नर्म और
शर्मीली धूप।
जैसे चिलमन से
दीदार होता
हुआ तुम्हारा मुखड़ा हो।
जानती हो
उन दिनों आँगन में
या छत पर बैठकर
करता रहता
तुम्हारा इंतजार,
और
तुम्हारे आते ही
गोद में रख देता था
सिर,
जिसमें तुम्हारी
नर्म अंगुलियाँ
करने लगती थी
चहलकदमी आदतन।
अब
इन दिनों
न तो वह शर्मीलापन है
धूप में ,
और न ही तुम्हारे आने की
आहट।
है तो बस
शेष एकांकी
जीवन और प्रतीक्षा
भर।
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