मैंने भी बादल की एक बूँद के इन्तजार में; बिताया है पूरा एक बरस ! फिर मन मार कर धरती की छाती में धँसा दिया नुकीला हल ! क्योंकि मुझे तो निभाना ही था, एक किसान का धर्म ; भले ही नष्ट हो जाय एक और सभ्यता अपने विकास के चरमोत्कर्ष परिणामों से !
आपके विचारों का प्रतिबिम्ब !