अन्तर्द्वन्द्व उद्वेलित करता अंतर्मन को, क्या? इस निबड़े तम पश्चात निशा के व्यतीत होने पर, अरुणोदय की लाली पुन: शृंगार करेगी इस धरा का? या यूं ही निराशा की इस निशा में निशांत के नक्षत्र सदृश्य , आशा का आभास हो जायेगा अदृश्य! क्या कल्पना - कल्पना ही रहेगी या होगी साकार? क्या अत्क की स्वर्णिम रश्मियाँ धरा के कंठ में नहीं डालेंगी मुक्ताहार ? क्या श्रांत हो चला वह भी - निमीलित कर लो चक्षु , अब प्रकाश अर्थ हीन होगया ! ठहरो ! वह देखो दूर कहीं, टिमटिमा रहा है ज्योतिपुंज , प्रतीक्षा में वह प्रकाश का परिचय करा रहा है/ अरे! हाँ देखो, प्राची से कुछ बधूटिकाएं शृंगार थाल लिए चली आ रहीं हैं धरा की ओर, करने को शृंगार, डालने को मुक्ताहार ! अवगुंठन हटा दो, स्वयं को जागृत करो, अब निशा छटने वाली है वह देखो दूर वहाँ क्षितिज पर आशा की पौ फटने वाली है !