ये जो कैक्टस पर दिख रही है अमरबेल , जानते हो यह भी परजीवी है ठीक राजतन्त्र की तरह। लेकिन लोकतंत्र में कितने दिन पनप सकेगी ये अमरबेल , खत्म होगा इसका भी अमरत्व आखिर एक दिन
उसने कब मुझे ही मुसलसल चाहा, जब भी चाहा - अलैहदा ही चाहा। अहदे वफ़ा की क्या दरकार करें, हमने भी उसको इस कदर न चाहा। चाहत उल्फत की थी दोनों दिलों में , मगर किसी ने भी किसी को न चाहा। मगरूर थे सब अपनी खुद्दारी में, ज़माने भर ने ज़माने को न चाहा। कितनी ख़ुशनुमा होती ये दुनिया, बन्दे ने गर बन्दे को होता चाहा।