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संदेश

अमरबेल

ये जो कैक्टस पर दिख रही है अमरबेल , जानते हो यह भी परजीवी है ठीक राजतन्त्र की तरह।   लेकिन लोकतंत्र में कितने दिन पनप सकेगी ये अमरबेल , खत्म होगा इसका भी अमरत्व आखिर एक दिन
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चाहना

 उसने कब मुझे ही मुसलसल चाहा, जब भी चाहा - अलैहदा ही चाहा। अहदे वफ़ा की क्या दरकार करें, हमने भी उसको इस कदर न चाहा। चाहत उल्फत की थी दोनों दिलों में , मगर किसी ने भी किसी को न चाहा।   मगरूर थे सब अपनी खुद्दारी में, ज़माने भर ने ज़माने को न चाहा।   कितनी ख़ुशनुमा होती ये दुनिया, बन्दे ने गर बन्दे को होता चाहा।

मुझे स्त्री ही रहने दो

मैं नहीं चाहूंगी बनना देवी मुझे नहीं चाहिए आठ हाथ और सिद्धियां आठ।   मुझे स्त्री ही रहने दो , मुझे न जकड़ो संस्कार और मर्यादा की जंजीरों में। मैं भी तो रखती हूँ सीने में एक मन , जो कि तुमसे ज्यादा रखता है संवेदनाएं समेटे हुए भीतर अपने।   आखिर मैं भी तो हूँ आधी आबादी इस पूरी दुनिया की।

परिवर्तन

कोई युद्ध  अंतिम नहीं होता, कोई क्रांति नहीं होती आखिरी। शांति का पल नहीं ठहरता देर तक, न ही ठहरती है हवा बदलाव की। संघर्ष पैदा हो जाता है भूख के पैदा  होते ही। वो फिर चाहे  सर्वहारा का संघर्ष हो या फिर शोषितों का सत्ता के खिलाफ।  समय समय पर होते रहेंगे  युद्ध और क्रांतियां, क्योंकि परिवर्तन  नियम जो है प्रकृति का।

मतलब की दुनिया में सब मतलब के साथी

 मतलब की दुनिया में सब मतलब के साथी सबके जीवन की अपनी अलग कहानी। एक दुःख जाए,एक दुःख आये सुख-दुःख आते जाते -दुनिया है फानी ; होय  उजियारा जब जले  तेल संग बाती। मतलब की दुनिया में सब मतलब के साथी---------- किसने कब किसके दुःख को बांटा सबने ही केवल सुख को बांटा खुद की छाया ही साथ न दे , जब जब अँधियारा है आता। छूटे साँस जब एक तो दूजी है आती।   मतलब की दुनिया में सब मतलब के साथी---------- करें खुशामद मौका पड़ते ही पकड़ें पैर मतलब पर न कोई अपना ना  कोई गैर, मिलते ही पद-पैसा सब सम्बन्ध बनाते हैं मिले दूध गाय से तो सभी लात खाते हैं, भले बात होय तीखी है हित  की भाती।   मतलब की दुनिया में सब मतलब के साथी-----------

औरतें

 कब  उठ जाती है सुबह , पता ही  नहीं चलता! बच्चों  का टिफिन  और बाबूजी की दवायें और पति के कुनमुनाने तक सुबह की चाय, कैसे तैयार कर  लेती है यह सब। इतना सब  करने पर भी, क्या कुछ बचा रहता भी है उसके खुद के लिए? या केवल  जली भुनी बातें बिल्कुल उसके हिस्से की रोटियों जैसी, आती है हिस्से में । क्यों  भेज देते हैं पिता अपनी बेटी को  दूसरे घर में यह कह कर कि अब तुम्हारा है वह घर जो कभी शायद ही हो पाता है उसका पहले जैसा घर।

चरागों की फितरत ही है जलना

 जहां रौशन रहे,बस यही काफी है, चरागों की फितरत ही है जलना। जलजला आए या कि तूफान आए बहारो में तो गुलों का ही है खिलना। भले ही फूटे बम हर इक बाजार में, खिलौने पर बच्चे को तो है मचलना । राहे गुजर की ठोकरों से क्या घबराना, बढ़ना-गिरना - गिर कर है सम्भलना।