चुप रह जाती हूँ सुनकर तुम्हारे तिरस्कृत वचन इसलिए नहीं कि तुम पुरुष हो, बल्कि इसलिए सम्बन्धों और संस्कारों की श्रृंखला, कहीं कलंकित न हो जाए समर्पण की पराकाष्ठा । मुझे भी आता है तर्क-वितर्क करना, पर चुप रह जाती हूँ कि कौन करेगा सम्पूर्ण सृष्टि का संवर्धन। स्त्री ही बन सकती है स्त्री, नहीं हो सकता विकल्प कोई स्त्री का । कहीं बिखर न जाय
तुम तीरे नज़र चलाओ तो सही; हम जिगर निशाने पर लिये बैठे हैं। तुम से भले तो गैर निकले यहाँ, तुम्हारे दिये जख्म दिल पे लिए बैठे हैं। इंतिहा क्या होगी सितमों की अब, हर इक इल्जाम सर पे लिए बैठे हैं। तेरे बारे बहुत सुना था शहर में, हर इक शिनाख्त हम किये बैठे हैं। बेवफाई का आलम क्या होगा अब, यहाँ हर इक चोट छुपाकर बैठे हैं।