मैं नहीं चाहूंगी
बनना देवी
मुझे नहीं चाहिए
आठ हाथ और
सिद्धियां आठ।
मुझे स्त्री ही
रहने दो ,
मुझे न जकड़ो
संस्कार और
मर्यादा की जंजीरों में।
मैं भी तो रखती हूँ
सीने में एक मन ,
जो कि तुमसे ज्यादा
रखता है संवेदनाएं
समेटे हुए
भीतर अपने।
आखिर मैं भी तो हूँ
आधी आबादी
इस पूरी दुनिया की।
मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति सर।
जवाब देंहटाएंसादर
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार ७ अप्रैल २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
समय बहुत बदल गया : आज नहीं जकड़ी जा सकती स्त्रियाँ
जवाब देंहटाएंआठ हाथ और आठ सिद्धियाँ तो जन्मसिद्ध हैं स्त्रियों में ...हाँ अब इन बनावटी भक्तों के बश में नहीं रहेगी स्वयंसिद्धा ।
जवाब देंहटाएंमूर्तियों में दिख जाते हैं आठ हाथ .....वरना स्त्रियों को काम करते देखिए तो आठ हाथ ही दिखेंगे ।
जवाब देंहटाएंव्वाहहहहहहह
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
आभार
सादर
समाज को नारी का बन्ध्या और पूज्य रूप सदा भाया है।श्रद्धा की देवी बनाकर उसे सदियों उसकी सहज भावनाओं से सदैव दूर रखा गया।पर समय बदलने के साथ नारी ने भी मानवी होने के अपने अधिकार को माँगा है।उसे भी मानव होने के नाते अपनी खुशियों को मुक्त भाव से जीने का अधिकार है।
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