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अपना हिसाब फरेबी लिखते हैं

ये वो लोग हैं जो बाजार खरीदते हैं। ना कभी हारते हैं ना कभी जीतते हैं । हर शाम सौदा होता है इमानदारी का,  हर शाम जमीर यहां पर बिकते हैं । कुछ एक हैं इस बाजार में अब भी, जो अपना हिसाब फरेबी लिखते हैं। लोग बड़े ही शातिर है लेन-देन में, काली नीयत उजला लिबास रखते हैं। होशियार रहना देश के इन गद्दारों से, नेता जो कुछ कुछ शरीफ दिखते हैं। ये वो लोग हैं जो बाजार खरीदते हैं। ना कभी हारते हैं ना कभी जीतते हैं ।

जब से वो मेरे साथ सरेआम हो गया है

जब से वो मेरे साथ सरेआम हो गया है, इस शहर में वो भी बदनाम हो गया है।। लोग यूं ही नहीं उठाते हैं अंगुलियां मुझ पर शहर के रईसों में मेरा भी नाम हो गया है। जलते हैं तो जलने दो, ये जमाने वाले हैं; इनका तो जलते रहना ही काम हो गया है। जरायम पेशा जब से हुए सफ़ेदपोश, लुच्चे लफंगों का जीना हराम हो गया है। जो था कभी रिंद के लबों का लफ्ते जिगर, महफिल का टूटा हुआ जाम हो गया है। जब से वो मेरे साथ सरेआम हो गया है, इस शहर में वो भी बदनाम हो गया है।।

बड़े बड़े करते हैं मुजरा जिंदगी की थाप पर

बड़े बड़े करते हैं मुजरा जिंदगी की थाप पर, गुजरते ही लोग रख देंगे तुम्हें भी ताख पर। गुरूर करना ठीक नहीं होता किसी के लिए, गर्दिशे खाक हुए जो थे जमाने की आंख पर । रौशन थे जो सितारे फलक पर कभी, बुझ गये सभी चिता की ठंडी राख पर। भरने को पेट, ढकने को बदन काफी है, कोई नहीं खरीदता है कफ़न नाप कर । भूखे को निवाला दे, रोते हुए को हंसा, मिटाकर नफरत दिलों से, खुद को आफताब कर। बड़े बड़े करते हैं मुजरा जिंदगी की थाप पर, गुजरते ही लोग रख देंगे तुम्हें भी ताख पर।

यूं ना जिंदगी को जार जार करिए

यूं ना जिंदगी को जार जार करिए,    थोड़ा सा खुद से भी प्यार करिए।    ये इश्क का मुवामला है बर्खुरदार,।  जरा सा जीत को भी हार करिए।  हो जरूरत जंग में जो शहादत की, कुरबान खुद को बार-बार करिए। ठीक नहीं मजहबी सियासत करना, इरादों का अपने इश्तिहार करिए । जुल्म की जंग हो गई है पेचीदा,      कलम और थोड़ा धारदार करिए।

कैसे-कैसे लोग साहिबे मसनद हो गए

कैसे -कैसे लोग साहिबे मसनद हो गए , मजहब के सौदाई सब दहशत गर्द हो गए।   सियासती दंगों की फसल जब-जब लहराई ,   जितने भी हिजड़े थे शहर में, सब मर्द हो गए।   बिक जाती हैं बेटियां रोटियों खातिर, छाले सब रूह के बेहद बेदर्द हो गए।   कौन पूछता है सबब गरीबों का जहां में , बेटी जवान क्या हुयी, सब हमदर्द हो गए।   राहे-गुजर के पत्थर हुआ करते थे कभी, वक्त क्या बदला, सबके सब गुम्बद हो गए।   यहां अवाम तरसती रही निवालों के लिए, हालाते मुल्क पे वो बेशर्म बेहद हो गए ।

मैं खरीद दार जो हूं.....

सिस्टम में नहीं फिट बैठता, क्या करूं, थोड़ा सा मैं ईमानदार जो हूं। रो पड़ता हूं किसानों की खुदकुशी पर , थोड़ा सा मैं जमीनदार जो हूं। नहीं बेचा जाता मुझसे मेरा ज़मीर, थोड़ा सा मैं ज़मीर दार जो हूं। नहीं देखी जाती मुझसे अब ये लाचारी, थोड़ा सा मैं तामीर दार जो हूं। कैसे न करूं खरीद-फरोख्त ग़मे-बाजार में थोड़ा सा मैं खरीद दार जो हूं।