सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

मार्च, 2023 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

परिवर्तन

कोई युद्ध  अंतिम नहीं होता, कोई क्रांति नहीं होती आखिरी। शांति का पल नहीं ठहरता देर तक, न ही ठहरती है हवा बदलाव की। संघर्ष पैदा हो जाता है भूख के पैदा  होते ही। वो फिर चाहे  सर्वहारा का संघर्ष हो या फिर शोषितों का सत्ता के खिलाफ।  समय समय पर होते रहेंगे  युद्ध और क्रांतियां, क्योंकि परिवर्तन  नियम जो है प्रकृति का।

मतलब की दुनिया में सब मतलब के साथी

 मतलब की दुनिया में सब मतलब के साथी सबके जीवन की अपनी अलग कहानी। एक दुःख जाए,एक दुःख आये सुख-दुःख आते जाते -दुनिया है फानी ; होय  उजियारा जब जले  तेल संग बाती। मतलब की दुनिया में सब मतलब के साथी---------- किसने कब किसके दुःख को बांटा सबने ही केवल सुख को बांटा खुद की छाया ही साथ न दे , जब जब अँधियारा है आता। छूटे साँस जब एक तो दूजी है आती।   मतलब की दुनिया में सब मतलब के साथी---------- करें खुशामद मौका पड़ते ही पकड़ें पैर मतलब पर न कोई अपना ना  कोई गैर, मिलते ही पद-पैसा सब सम्बन्ध बनाते हैं मिले दूध गाय से तो सभी लात खाते हैं, भले बात होय तीखी है हित  की भाती।   मतलब की दुनिया में सब मतलब के साथी-----------

औरतें

 कब  उठ जाती है सुबह , पता ही  नहीं चलता! बच्चों  का टिफिन  और बाबूजी की दवायें और पति के कुनमुनाने तक सुबह की चाय, कैसे तैयार कर  लेती है यह सब। इतना सब  करने पर भी, क्या कुछ बचा रहता भी है उसके खुद के लिए? या केवल  जली भुनी बातें बिल्कुल उसके हिस्से की रोटियों जैसी, आती है हिस्से में । क्यों  भेज देते हैं पिता अपनी बेटी को  दूसरे घर में यह कह कर कि अब तुम्हारा है वह घर जो कभी शायद ही हो पाता है उसका पहले जैसा घर।

चरागों की फितरत ही है जलना

 जहां रौशन रहे,बस यही काफी है, चरागों की फितरत ही है जलना। जलजला आए या कि तूफान आए बहारो में तो गुलों का ही है खिलना। भले ही फूटे बम हर इक बाजार में, खिलौने पर बच्चे को तो है मचलना । राहे गुजर की ठोकरों से क्या घबराना, बढ़ना-गिरना - गिर कर है सम्भलना।

चलाते हैं नश्तर, जिगर पर .....

अदा ही कुछ ऐसी है उनकी;  चलाते हैं नश्तर, जिगर पर धीरे-२........ मुराद मांगी थी, मौत बख्श दें;  पिलाते हैं प्याले, जहर भर धीरे-२........ दीदा-ए-दीदार तरसता रहा; करते हैं शिकार, नजर भर धीरे-२....... था जाहिर के बेमुरव्वत हैं वो; जुस्तजू में मरते रहे, उम्र भर धीरे-२...... आएगा तरस मुकद्दर को कभी; जीते रहे लिए एक, सबर भर धीरे-२...... अदा ही कुछ ऐसी है उनकी; चलाते हैं नश्तर, जिगर पर धीरे-२.......

अजब सा रिश्ता है अब मेरा तन्हाइयों से ....

अजब सा रिश्ता है अब मेरा तन्हाइयों से ,       जब भी टूटता हूँ , मुझको थाम लेती हैं।             माना के मुकद्दर को यही मंजूर था, मगर , दुनिया तो  एक तुझे ही इल्जाम देती है। गुजर तो रही है तेरे बगैर ये जिंदगी , हर एक साँस अब मेरी जान लेती है। कत्ल की साजिश में यूँ तो और भी लोग थे ,   अजीजों में खल्क बस तेरा नाम लेती है कौन पूछता है उदासी का सबब मुझसे जिंदगी कदम-कदम पे  इम्तिहान लेती है। कायनात नहीं बख्शती है किसी को भी, वक्त आने पर सभी से इंतकाम लेती है

माँ- समय की चाक पर

 यह कैसा समय है तीन-तीन बेटे हैं फिर भी माँ को भूखा ही सोना पड़ता है। ऐसा नहीं कि बेटों को माँ की  फ़िक्र नहीं , दवा-पानी, भोजन-बिस्तर सब चीजों की व्यवस्था कर रक्खी है तीनों ने अपने-अपने हिस्से और हिसाब से। लेकिन तीनों के पास अब समय नहीं जो माँ से एक बार भी हाल-चाल पूछें। अब कोई नहीं आता उनके पास पूछने कि - माँ, खाना और दवाइयाँ ले लीं  हैं समय पर? ये वही माँ है जो बेटों की जरा सी रोने की आवाज पर अपना कलेजा मुँह में ले आती थी , उनके पिता से करती थी शिफारिश उनकी हर जिद को पूरी कर देने की, अपनी ख्वाहिशों को दबाकर। शायद अब बदल गए हैं शब्दों और संबंधों के मायने समय के साथ। या नहीं पड़ती है बेटों को माँ की जरूरत अपनी जिद पूरी करवाने की, वैसे भी  अब पिताजी तो हैं नहीं , अब मालिकाना हक  तो बेटों के पास ही है। हो गया है समय शातिर या ये लोग जिनको नहीं पड़ती है जरूरत किसी से किसी को सब कुछ तो मिल जाता है क्योंकि मतलब होने पर "गधे को बाप" बानाने  की कला   चली आ रही है सदियों से।

होली मुबारक

 किससे कहें कि होली मुबारक,  जनता को बस गोली मुबारक।  नीलाम हो गई है सियासत, बगुलों को अब बोली मुबारक।  छप्पन भोग खाएं दलाल-दल्ले, फकीर को तो झोली मुबारक।  कोठियां रौशन हैं मक्कारों की, धनिया की तो खोली मुबारक।  खैर जिस -जिसकी जैसी हो ली, अपनी -अपनी टोली मुबारक।