जिंदगी कहाँ कहाँ से गुजरती चली गयी, दुःख-सुख के लम्हों से संवरती चली गयी। जैसे ही हुआ पैदा, रिश्तों ने बांध लिया, जोड़-तोड़ में जिंदगी बिखरती चली गयी। रोटी,पैसा और फिर अपनों की तलाश में राहे गुजर में यहाँ-वहाँ भटकती चली गयी। जिस दीवार के सर पे थी छत टिकी हुयी, क्यों वो नेह की दीवार दरकती चली गयी। जिंदगी कहाँ कहाँ से गुजरती चली गयी, दुःख-सुख के लम्हों से संवरती चली गयी।
आपके विचारों का प्रतिबिम्ब !