सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

माँ- समय की चाक पर

 यह कैसा समय है
तीन-तीन बेटे हैं
फिर भी माँ को
भूखा ही सोना पड़ता है।

ऐसा नहीं कि
बेटों को माँ की  फ़िक्र नहीं ,
दवा-पानी, भोजन-बिस्तर
सब चीजों की व्यवस्था
कर रक्खी है
तीनों ने अपने-अपने हिस्से
और हिसाब से।

लेकिन तीनों के पास
अब समय नहीं जो
माँ से एक बार भी
हाल-चाल पूछें।
अब कोई नहीं आता उनके पास
पूछने कि -
माँ, खाना और दवाइयाँ
ले लीं  हैं समय पर?

ये वही माँ है
जो बेटों की जरा सी
रोने की आवाज पर
अपना कलेजा
मुँह में ले आती थी ,
उनके पिता से
करती थी शिफारिश
उनकी हर जिद को
पूरी कर देने की,
अपनी ख्वाहिशों
को दबाकर।

शायद अब
बदल गए हैं शब्दों और
संबंधों के मायने
समय के साथ।
या नहीं पड़ती है
बेटों को माँ की जरूरत
अपनी जिद पूरी
करवाने की,
वैसे भी  अब पिताजी
तो हैं नहीं ,
अब मालिकाना हक 
तो बेटों के पास ही है।

हो गया है समय शातिर
या ये लोग जिनको
नहीं पड़ती है जरूरत
किसी से किसी को
सब कुछ तो मिल जाता है
क्योंकि मतलब होने पर
"गधे को बाप"
बानाने  की कला  
चली आ रही है सदियों से।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मतलब का मतलब......

 मतलब की दुनिया है-जानते सभी हैं, फिर भी यहाँ मतलब निकालते सभी हैं। अपनापन एक दिखावा भर है फिर भी, जाहिर भले हो लेकिन जताते सभी हैं। झूठी शान -ओ-शौकत चंद लम्हों की है, ये जानते हुए भी दिखाते सभी हैं। नहीं रहेगी ये दौलत सदा किसी की,  जमाने में पाकर इठलाते सभी हैं। मौत है मुत्मइन इक न इक दिन आएगी, न जाने क्यूँ मातम मनाते सभी हैं।

बेख्याली

न जाने किस ख्याल से बेख्याली जायेगी; जाते - जाते ये शाम भी खाली जायेगी। गर उनके आने की उम्मीद बची है अब भी, फिर और कुछ दिन  मौत भी टाली जायेगी। कुछ तो मजाज बदलने दो मौसमों का अभी, पुरजोर हसरत भी दिल की निकाली जायेगी। कनारा तो कर लें इस जहाँ से ओ जानेजां, फिर भी ये जुस्तजू हमसे न टाली जायेगी । कि ख्वाहिश है तुमसे उम्र भर की साथ रहने को, दिये न जल पाये तो फिर ये दिवाली  जायेगी।

स्त्री !

चाणक्य ! तुमने कितनी , सहजता से कर दिया था; एक स्त्री की जीविका का विभाजन ! पर, तुम भूल गये! या तुम्हारे स्वार्थी पुरुष ने उसकी आवश्यकताओं और आकाँक्षाओं को नहीं देखा था! तुम्हें तनिक भी, उसका विचार नही आया; दिन - रात सब उसके तुमने अपने हिस्से कर लिए! और उसका एक पल भी नहीं छोड़ा उसके स्वयं के जीवन जीने के लिए!