व्यथित है तू मन की व्यथा से;
अतृप्त है तू आशा की तृष्णा से!
कर्तव्य अधिकार की चिंता में;
व्यथित है तू जीवन मृश्ना से !!
उलझ गया जीवन के प्रश्नों से;
विक्षिप्त हुआ पथ के अश्नों से!
माया-ममता से है व्योमोहित;
"मैं" के मिथ्या अहम् से है गर्वित !!
लेना ही लेना है तेरा लक्ष्य;
नहीं भावना है समर्पण की !
व्यर्थ तू मानवता का प्रहरी;
व्यर्थ है भाषा कर्म-अर्पण की!!
कृतिका से चाहते हो निवृत्ति;
धरो धरित्री सा धीरज तुम;
मत मुख मोड़ो देख विवृत्ति
कर दो सर्वस्व अर्पण तुम!
बहुत सराहनीय प्रस्तुति.आपका ब्लॉग देखा मैने और नमन है आपको
जवाब देंहटाएंऔर बहुत ही सुन्दर शब्दों से सजाया गया है बस लिखते रहिये और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये
http://madan-saxena.blogspot.in/
http://mmsaxena.blogspot.in/
http://madanmohansaxena.blogspot.in/
मदन मोहन जी बहुत आभार जो आप ने मेरे चिट्ठे का अवलोकन किया !
हटाएंभविष्य में ऐसी ही कृपा का आकांक्षी रहूँगा!
धन्यवाद!
बेहतरीन लिखे हैं सर!
जवाब देंहटाएंसादर