जो इन्सान मुक्य्यद है इशरत में,
बैहर-ए-आज़ादी सरूर कैसे हासिल हो!
जब अस्प मुतलक इना नहीं तो,
खोकर चश्म-ए-नूर दीदार कैसे साहिल हो !
मुत्मईन है ज़िन्दगी बसर से फिर क्या;
क्या शरारार के इल्ल्तो सिहत फाजिल हो !
नूर-ए-खुदा मोहम्मदी या पैगम्बरी क्या;
अब्तर ही है वो कमतर भले ही काबिल हो !
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