क्षण भर के जीवन में हे मानव!
तू क्यों मानवता से विमुख हुआ?
करता निज बन्धु पर आघात;
क्षुण धन हेतु पतनोन्मुख हुआ!
लोभ-मोह-माया से होकर ग्रसित;
जीवन में तू लक्ष्य विहीन हुआ !
खोकर निज अस्मिता को मानव,
स्व पतन से तू दैन्य-दीन हुआ !!
पाखंड-झूठ अन्याय में लिप्त हो;
निज गौरव हानि से न म्लानि हुयी!
मानवता पर करते अत्याचार,
मानव तुझे तनिक ण ग्लानि हुयी !!
जननी-जन्मभूमि पर कर रहा;
तू नित-नित भीषण अत्याचार!
कर रही आज मानवता कृन्दन,
देख मानव का निर्लज्ज व्यवहार !!
ख्याल बहुत सुन्दर है और निभाया भी है आपने उस हेतु बधाई,
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