कुछ रेखाएं
जो विभाजन की
परिभाषाएं;
हमारे, उनके
हम सभी के मध्य
निराशाएं!
किसी अन्य की नहीं
वरन अपनी ही कुंठित
अभिलाषाएं!!
विभाजित करतीं,
घर को, समाज को
अपनों को, फिर भी
उपजाती जिज्ञाषाएं!!
क्यूँ खीचीं हैं
हमने - आपने
अपनों के लिए
ये रेखाएं!!
क्या वो मानव नहीं ;
या उनके उर स्पंदन हीन हैं?
उनका वैभव हमें रास नहीं,
या वे मानव नहीं, मात्र दीन हैं!
फिर क्यूँ मानव खींचता
ये दूरी की सीमायें !
कहीं भूगोल, कहीं पर समाज
कहीं इतिहास से बनाता,
वही पुरानी रेखाएं!!
कहीं विचारों की;
कहीं भावनाओं की,
और कहीं पर
व्यवहारों की; हर क्षण
बनती हैं दीवारें!
हर जगह विभिन्नताएं !!
धार्मिकता के नाम पर,
राष्ट्रीयता के नाम पर
सम्प्रदाय और
संघ के नाम पर
जाती और लिंग
के नाम पर,
हमारी बनाई
हुयी ये दीवारें!
हर बार ढह कर
हमें ही दबाएँ!
दीवारें पुनः
साकार हो उठती हैं,
पर हर बार घायल
मानवता ही होती है!
फिर भी हम खींचते हैं
ये रेखाएं !!!
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