ये भढुवे हैं, रखते हैं स्त्री को वक्त की चाक पर; पर भूल जाते हैं, धुरी में रहने वाली स्त्री को । न चाहकर भी, स्त्री हो जाती है विवश कि बचा रहे स्त्रीत्व वक्त की चाक पर ।
चलता जा राही साँसों के चलने तक, रुकना न कभी मंजिल के मिलने तक। चलता जा राही.......... जीवन क्या है बहती एक धारा है, जीता वही जो मन से कभी न हारा है। रात अभी कहाँ, सूरज के ढलने तक। चलता जा राही साँसों के चलने तक। सुख-दु:ख तो आने जाने हैं पल भर को ही खोने पाने हैं जलना ही जीवन है जलता जा तम के हरने तक, चलता जा राही साँसों के चलने तक।