सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

छूटे हुए पल

कहीं कुछ छूट जाता है जब न समेट पाने की वजह से नहीं, बल्कि जानबूझकर छोड़ दिया जाता है; वह कचोटता रहता है उम्रभर। छोड़े जाने की कोई तो वजह रही होगी या रही होगी मजबूरी, जब हमने छोड़ दिया; उस छूटे हुए पल को, जिसे उम्र आज भी  आकुल है पा लेने को। काश.....................

रात गुज़र जाएगी

मेहरबानियां उनकी इसकदर हैं मुझपर, गिनने बैठूंगा तो रात गुज़र जाएगी ! रहने दो ख़ामोश लबों को, असर होने दो दुवाओं का; जख्म की नुमाइश में बात गुज़र जाएगी ! सितमगर तेरा हरेक सितम, मेहरबानी से बढ़कर है मेरे लिए; ठहर गया जो लम्हा, सौगात गुज़र जाएगी! तड़प उठता है ज़िगर इक याद पे, सब्र कर लेता हूँ ये सोंचकर; छूली जो तस्वीर तेरी, ऐतिहात गुज़र जाएगी!

प्रेम

आज तुम्हारा चित्र हाथ में क्या आया  गुजरा कल फिर से यादों में जीवन्त हो उठा। तुम्हारे साथ बिताए हुए हर लम्हे, तुम्हारी बात बात पर बेबात की मुस्कुराहट और हमारे न बिछड़ने के वादे। अच्छा, ये बताओ क्या मैं तुम्हें तनिक भी नहीं याद आता हूँ, फिर मुझे भूख से पहले और मेरी मामूली सी बीमारी में हिचकियाँ क्यों आती हैं। अच्छा सुनो एक बार अपने मन ही मन वे शब्द कह दो जिससे जीवन की गति मंथर न हो। मेरी सांसों को उन शब्दों का इन्तजार अब भी है। मालूम है बहुत विवश हो, तुम्हारी विवशता मैं समझता हूँ पर दिल को कैसे दिलासा दूँ, वह तो तुम्हें ही सुनने और महसूसने की जिद किये बैठा है।

सच तो यही है

एक बच्ची उड़ती है आज़ाद परिंदे सी, ख्वाबों के आसमानों में। एक लड़की छुपा रही है खुद को कुछ जोड़ी बहसी आँखों से। एक औरत घोट रही है खुद का ही गला  डर है कि फाँसी पर न लटका दी जाय।

सीढ़ी और कंधे

आगे बढ़ने की पहली सीढ़ी  किसी के कंधे पर से  होकर ही गुजरती है। जैसे आगे बढ़ रहा  मार्क्सवाद के कंधों पर चढ़कर पूँजीवाद; जैसे बढ़ा था कभी बंधुवा मजदूर के कंधों पर चढ़कर जमींदार। ठीक वैसे बढ़ रही है जनता के कंधों पर चढ़कर सरकार।