सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

कुछ लावारिश बच्चे !


साँझ के झुरमुट से
झांकता एक 
नन्हा पक्षी 
जिसे प्रतीक्षा है
अपनी  माँ की !
सुबह से गयी थी 
जो कुछ दानों की 
खोज में !
दिनभर भटकने के बाद 
तब कहीं जाकर 
अनाज की मंडी में 
मिले थे  चार दाने 
घुने हुए गेंहूं के !

चोंच में दबाये 
सोंच रही है ,
इन चार दानों से 
तीन जीवों का 
छोटा पेट भर पायेगा 
या कि रात कटेगी 
चाँद को  ताकते हुए! 

तभी उसे नजर आया 
उसका अपना घर और 
वह  चूजा जिसे छोड़ कर
निकली थी भोजन की
तलाश में !

क्या कहेगी अपनों से 
बस दिन भर में मिले 
केवल यही चार दाने !

फिर याद आया
उसे मंदिर के कोने में 
बैठा हुआ एक अपाहिज 
और उसका सूना 
कटोरा!
और
कूड़े के ढेर पर पड़ी हुयी 
रोटियों के लिए 
लड़ते हुए 
कुछ लावारिश बच्चे !

तसल्ली देकर 
खुद से बोली 
कमसे कम मेरा चूजा 
लावारिश और 
अपाहिज तो 
नहीं है 
आज एक दाना 
ही खाकर 
चैन  से सो तो सकेगा  !

टिप्पणियाँ

  1. गहन संवेदनशील विचार-सुन्दर अभिव्यक्ति
    नई पोस्ट: "सास भी कभी बहू थी i"

    जवाब देंहटाएं
  2. कविता पढ़कर एक ही शब्‍द है गूंजता है..........अद्भुत।

    जवाब देंहटाएं
  3. कमसे कम मेरा चूजा
    लावारिश और
    अपाहिज तो
    नहीं है
    आज एक दाना
    ही खाकर
    चैन से सो तो सकेगा,,,उत्कृष्ट,संवेदनशील बेहतरीन रचना,,
    बधाई आस्थाना जी,,,,,

    recent post : समाधान समस्याओं का,

    जवाब देंहटाएं
  4. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगल वार 25/12/12 को चर्चाकारा राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी आपका स्वागत है ।

    जवाब देंहटाएं
  5. मित्र हृदय को स्पर्स करती रचना संवेदना की उंचाईयों को नए आयाम दे रही है .....बहुत सुन्दर सृजन बधाईयाँ जी

    जवाब देंहटाएं
  6. संवेदनशील रचना ...
    गहरा संवाद करती अंतर्मन से ...

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मतलब का मतलब......

 मतलब की दुनिया है-जानते सभी हैं, फिर भी यहाँ मतलब निकालते सभी हैं। अपनापन एक दिखावा भर है फिर भी, जाहिर भले हो लेकिन जताते सभी हैं। झूठी शान -ओ-शौकत चंद लम्हों की है, ये जानते हुए भी दिखाते सभी हैं। नहीं रहेगी ये दौलत सदा किसी की,  जमाने में पाकर इठलाते सभी हैं। मौत है मुत्मइन इक न इक दिन आएगी, न जाने क्यूँ मातम मनाते सभी हैं।

स्त्री !

चाणक्य ! तुमने कितनी , सहजता से कर दिया था; एक स्त्री की जीविका का विभाजन ! पर, तुम भूल गये! या तुम्हारे स्वार्थी पुरुष ने उसकी आवश्यकताओं और आकाँक्षाओं को नहीं देखा था! तुम्हें तनिक भी, उसका विचार नही आया; दिन - रात सब उसके तुमने अपने हिस्से कर लिए! और उसका एक पल भी नहीं छोड़ा उसके स्वयं के जीवन जीने के लिए!

पानी वाला घर :

समूह में विलाप करती स्त्रियों का स्‍वर भले ही एक है उनका रोना एक नहीं... रो रही होती है स्‍त्री अपनी-अपनी वजह से सामूहिक बहाने पर.... कि रोना जो उसने बड़े धैर्य से बचाए रखा, समेटकर रखा अपने तईं... कितने ही मौकों का, इस मौके के लिए...।  बेमौका नहीं रोती स्‍त्री.... मौके तलाशकर रोती है धु्आं हो कि छौंक की तीखी गंध...या स्‍नानघर का टपकता नल...। पानियों से बनी है स्‍त्री बर्फ हो जाए कि भाप पानी बना रहता है भीतर स्‍त्री पानी का घर है और घर स्‍त्री की सीमा....। स्‍त्री पानी को बेघर नहीं कर सकती पानी घर बदलता नहीं....। विलाप.... नदी का किनारों तक आकर लौट जाना है तटबंधों पर लगे मेले बांध लेते हैं उसे याद दिलाते हैं कि- उसका बहना एक उत्‍सव है उसका होना एक मंगल नदी को नदी में ही रहना है पानी को घर में रहना है और घर बंधा रहता है स्‍त्री के होने तक...। घर का आंगन सीमाएं तोड़कर नहीं जाता गली में.... गली नहीं आती कभी पलकों के द्वार हठात खोलकर आंगन तक...। घुटन को न कह पाने की घुटन उसका अतिरिक्‍त हिस्‍सा है... स्‍त्री गली में झांकती है, गलियां सब आखिरी सिरे पर बन्‍द हैं....। ....गली की उस ओ...