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निश्छल प्राण छले गये !


प्रिये !
तुम जब से चले गये;

रजनी निज मन को व्यथित कर;
थिर अन्तस् को स्वर प्लावित कर 
मानो 
निश्छल प्राण छले गये !
प्रिये !
तुम जब से चले गये;

नहीं  सुध है अब जीवन की,
न ही कामना कोई मन की,
किंचित 
तुम तो भले गये !
प्रिये !
तुम जब से चले गये;

टिप्पणियाँ

  1. सुन्दर संक्षिप्त सम्पूर्ण भाव....

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  2. किसी का जाना कभी कभी कितना खलता है
    भावपूर्ण सुन्दर !

    जवाब देंहटाएं
  3. किसी के न होने ... या चले जाने का दंश और फिर जब प्रिय ही न हो तो उसका न होना तो आत्मा निकाल देता है .... भाव मय प्रस्तुति ...

    जवाब देंहटाएं
  4. कम शब्दों में गहन भाव ......
    बेहद मर्मस्पर्शी

    जवाब देंहटाएं

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