समूह में विलाप करती स्त्रियों का स्वर भले ही एक है उनका रोना एक नहीं... रो रही होती है स्त्री अपनी-अपनी वजह से सामूहिक बहाने पर.... कि रोना जो उसने बड़े धैर्य से बचाए रखा, समेटकर रखा अपने तईं... कितने ही मौकों का, इस मौके के लिए...। बेमौका नहीं रोती स्त्री.... मौके तलाशकर रोती है धु्आं हो कि छौंक की तीखी गंध...या स्नानघर का टपकता नल...। पानियों से बनी है स्त्री बर्फ हो जाए कि भाप पानी बना रहता है भीतर स्त्री पानी का घर है और घर स्त्री की सीमा....। स्त्री पानी को बेघर नहीं कर सकती पानी घर बदलता नहीं....। विलाप.... नदी का किनारों तक आकर लौट जाना है तटबंधों पर लगे मेले बांध लेते हैं उसे याद दिलाते हैं कि- उसका बहना एक उत्सव है उसका होना एक मंगल नदी को नदी में ही रहना है पानी को घर में रहना है और घर बंधा रहता है स्त्री के होने तक...। घर का आंगन सीमाएं तोड़कर नहीं जाता गली में.... गली नहीं आती कभी पलकों के द्वार हठात खोलकर आंगन तक...। घुटन को न कह पाने की घुटन उसका अतिरिक्त हिस्सा है... स्त्री गली में झांकती है, गलियां सब आखिरी सिरे पर बन्द हैं....। ....गली की उस ओर से
आपके विचारों का प्रतिबिम्ब !