तुम्हें मुझसे ही
क्यों प्रेम होना था;
किस्मत का रूठ जाना
अच्छा था,
इन सांसों का टूट जाना
अच्छा था।
भला कोई बिना प्रिय के भी
जी पाता है;
फिर यह प्रेम यूँ ही
क्यों हो जाता है।
मुझे मेरी पीड़ा का तो
मलाल नहीं,
पर तुम्हारी वेदना
मुझे व्यथित कर जाती है।
प्रिये ! मैं तुमसे कहूँ,
भुला दो मुझे;
पर क्या मुमकिन होगा,
तुम्हें भूल जाना मेरे लिए।
क्यों प्रेम होना था;
किस्मत का रूठ जाना
अच्छा था,
इन सांसों का टूट जाना
अच्छा था।
भला कोई बिना प्रिय के भी
जी पाता है;
फिर यह प्रेम यूँ ही
क्यों हो जाता है।
मुझे मेरी पीड़ा का तो
मलाल नहीं,
पर तुम्हारी वेदना
मुझे व्यथित कर जाती है।
प्रिये ! मैं तुमसे कहूँ,
भुला दो मुझे;
पर क्या मुमकिन होगा,
तुम्हें भूल जाना मेरे लिए।
मुश्किल है दोनों बातों का होना ... दोनों बस में कहाँ होती हीन जब प्रेम आ जाए बीच में तो ...
जवाब देंहटाएंसुन्दर अभिव्यक्ति !
जवाब देंहटाएंजन्नत में जल प्रलय !
Prem ka shuruaat jitna sakoondeh hai utna hi mushkil hai uske ant ka har pal.. Uske baad bhi nhi bhoola ja sakta behad bhaawpurn!!
जवाब देंहटाएंदिल को छू लिया इस रचना नें ....सुंदर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद।
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