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नवंबर, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

अभी तो आये हो ,

अभी तो आये हो , और आते ही जाने की बात कह दी कई लम्हातों के  शिकवे तुमसे है करने हमे , मुद्दतो के वो गिले तुमसे हैं कहने हमे  दिल अभी भरा नहीं .......... और दिल दुखाने की शुरुवात कर दी ! अभी तो आये हो , और आते ही जाने की बात कह दी आँखों का है शिकवा हमें दीदार नहीं मिलता , मेरे चैन का है गिला ,मुझे करार नहीं मिलता , और क्या खे तन्हाई ........... तुमने जो रुसवा हो जाने की बात कह दी  ! अभी तो आये हो , और आते ही जाने की बात कह दी मेरी तमन्नाओं को न अधूरा छोड़ कर जाओ , ख्वाब ही सही तुम ,यूँ न मुह मोड़ कर जाओ, अभी तो याद अये हो............... और तुमने भूल जाने की बात कह दी  ! अभी तो आये हो , और आते ही जाने की बात कह दी !

मुझे न तुम याद आओं .........

सावन के झूलों ----- मुझे न तुम याद आओं   बागों में वादियों की वो छटाएं, शामों में घाटियों की वो घटाएं/ मुझे न तुम याद आओं ......... ऐ वो बिछुड़ी कलियाँ ,ऐ वो फूलों  सावन के झूलों ----- भीग जाते हैं मेरे सूने नयन , याद करके तुम्हारी प्यारी चितवन / मुझे न तुम याद आओं ......... ऐ मेरी बीते कल की वो भूलों  सावन के झूलों ........... कहाँ गये तुम और तुम्हारे वादे, किस कयामत के है अब ये इरादे  मुझे न तुम याद आओं ......... ऐ मेरे व्यथित व्यथा के वो शूलों  सावन के झूलों ...........

अमरता !

अय, अमरते तू ! क्यों कर लुभाती है ? इन चिर श्रमित , नीरस प्राणों को झकझोर हिलाती है/ मृत्यु के गह्वर रहस्य से, क्षण भर को ही भिग्य तो होने दे! अनंत के सास्वत लक्ष्य से, इस अत्न को , विज्ञ तो होने दे / निर्वाण के अनसुलझे चिर रहस्य को क्यों अब और उलझाती है ? अय, अमरते तू ! क्यों कर लुभाती है ?

अन्तर्द्वन्द्व

अन्तर्द्वन्द्व उद्वेलित करता  अंतर्मन को, क्या?  इस निबड़े तम पश्चात  निशा के व्यतीत होने पर, अरुणोदय की लाली  पुन: शृंगार करेगी  इस धरा का? या यूं ही  निराशा की इस निशा में  निशांत के नक्षत्र सदृश्य , आशा का आभास  हो जायेगा अदृश्य! क्या कल्पना - कल्पना ही रहेगी या होगी साकार? क्या अत्क की  स्वर्णिम रश्मियाँ  धरा के कंठ में  नहीं डालेंगी  मुक्ताहार ? क्या श्रांत हो चला वह भी - निमीलित कर लो चक्षु , अब प्रकाश अर्थ हीन होगया ! ठहरो ! वह देखो दूर कहीं, टिमटिमा रहा है ज्योतिपुंज , प्रतीक्षा में वह  प्रकाश का परिचय करा रहा है! अरे! हाँ देखो, प्राची से कुछ बधूटिकाएं  शृंगार थाल लिए  चली आ रहीं हैं  धरा की ओर, करने को शृंगार, डालने को मुक्ताहार ! अवगुंठन हटा दो, स्वयं को जागृत करो, अब निशा छटने वाली है  वह देखो दूर  वहाँ क्षितिज पर  आशा की पौ फटने वाली है !