सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

2014 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

इन्तिहा

गम के सिलसिले थमते कहाँ हैं; न जाने तुम कहाँ हो, हम कहाँ हैं। वक्त रोज़ गुजार देता है हमको; सदियों से लम्हे गुजरते कहाँ हैं। अक्सर गूँजती हैं सन्नाटों में तन्हाइयाँ; वीरान दोनों के ही अपने जहाँ हैं। हर शाम गुजरती है गमगीन होकर; महफिलों में भी हम रहते तन्हा हैं। गम के सिलसिले थमते कहाँ हैं; न जाने तुम कहाँ हो, हम कहाँ हैं।  

बस आँचल को तरसते हैं आज भी......।

मकाँ तो बहुत बना लिए , एक घर को  तरसते हैं आज भी। आँसू बहाना तो एक रस्म भर है, नेह के नीर को तरसते हैं आज भी। रिश्तों में अब वो कशिश कहाँ, एक " रिश्ते  " को तरसते हैं आज भी। कहने को सारी जमीं अपनी है, खुले आसमां को तरसते हैं आज भी। कपड़े बहुत हैं तन ढकने के लिए, बस आँचल को तरसते हैं आज भी।

तोड़ कर दिल कोई जब........

तोड़ कर दिल कोई जब रिश्तों की बात करता है। जैसे जिन्दगी उधार हो और किश्तों की बात करता है। उम्र भर दुश्मनी से दामन जोड़, फरिश्तों की बात करता है। लूट कर रात दिन का सुकून, गुलिश्तों की बात करता है।। तोड़ कर दिल कोई जब रिश्तों की बात करता है।

हार क्यों मानूं अभी से

जिन्दगी कोई बिना जिन्दगी के गुजरती नहीं, सांसें दौड़  रहीं हैं समय को हराने के लिए। भले ही हार जायेंगी एक दिन । तब तक हार मान कर खुद ही टूटने वाली नहीं हैं। फिर भला मैं ये कैसे मान लूँ कि हार चुका हूँ! जब तक हारा नहीं हूँ, जीत की उम्मीद पर जी तो सकता हूँ, जी भर कर ।।

बस भी करो

तुमने लिखा पानी, कहीं जलजला था, पर आदमी की आँखों का पानी मर चुका था। तुमने लिखी पीड़ा, कराहों और चीख़ों से गूँजते रहे सन्नाटे। तुम जब लिखने लगे भूख; जबरन रोकना पड़ा मुझे तुम्हारा हाथ बर्दाश्त के बाहर थी उस नवजात की चीख़ उसकी माँ को अभी मिटानी थी बहशियों की भूख।  

प्रेम

तुम्हें मुझसे ही क्यों प्रेम होना था; किस्मत का रूठ जाना अच्छा था, इन सांसों का टूट जाना अच्छा था। भला कोई बिना प्रिय के भी जी पाता है; फिर यह प्रेम यूँ ही क्यों हो जाता है। मुझे मेरी पीड़ा का तो मलाल नहीं, पर तुम्हारी वेदना मुझे व्यथित कर जाती है। प्रिये ! मैं तुमसे कहूँ, भुला दो मुझे; पर क्या मुमकिन होगा, तुम्हें भूल जाना मेरे लिए।

दरिंदे : एक नश्ल

क्या तुमने कभी देखा है, दो पैरों वाले बहशी जानवर को, ( जानवर शब्द के प्रयोग से  जानवर जाति का अपमान है ) यदि नहीं, तो अपनी  रुह से पूछो, अभी तक जिन्दा क्यों है। क्या दरिंदगी का सबसे वीभत्स रूप ईश्वर ने तुम्हारी रूह को दिया है। सृजेयता को भी ग्लानि होती होगी, देखता होगा जब तुम्हारे कुकृत्यों कों

बाज़ार वाद

बाज़ार वाद हावी है, रोटियों के लिए बिकना पड़ता है माँ को भी। शेम्पियन सस्ती है, उनके लिए, जो दो रोटियों की कीमत में। खरीदते हैं रातें एक अबला की। बनाते रहो यूँ ही बाज़ार, तभी तो पनपता रहेगा बाज़ार वाद ।

बीत जाना होता है हमें !!

कितना कठिन होता है समय का बीत जाना, और उससे कठिन होता है उस समय से गुजर जाना; कहते हैं समय ठहरता नहीं, और कभी कभी एक पल सदियाँ लेकर खड़ा हो जाता है वर्तमान! जैसे कि नहीं बीते हो तुम मुझमें और मैं बीतते -बीतते बीत रहा हूँ तुम्हारे अन्दर   !! पर जिन्दगी के लिए बीतना ही होता है दोनों को। और हाँ कब बीता है यह समय कि अब बीत जायेगा। समय नहीं बीतता बीत जाना होता है हमें  !!

आधी रात का आधा शहर

रात के साये में फुटपाथों पर पसरा आधी रात का आधा शहर ! ठेले, खुमचे वाले, रिक्शे, चाय वाले, काम की तलाश में आये बेरोजगार ! मजबूर मजदूर और उनका परिवार सब को मखमली फुटपाथ, सुला लेता है अपनी गोद में एक माँ के जैसा। और सुबह होते ही दौड़ पड़ेगा फिर से पूरा शहर  ; पर कई पिछली रातों सा कल रात भी दिख जाएगा इन्हीं फुटपाथों पर आधी रात के बाद आधा शहर !

इस धरती की आधी दुनिया

रोटी के जरा सी जल जाने भर से जला दी जाती हैं स्त्रियाँ। बेटों के जन्म न देने भर से मार दी जाती हैं, कोख में ही बेटियाँ  ।। और वर्जित है जिन्हें प्रेम करना  ।। ये स्त्रियाँ इस समाज का आधा हिस्सा हैं, आधी दुनिया हैं इस धरती की।। जिनका  भूगोल तो बना दिया गया है, पर गणितीय सिद्धांत अभी भी सहूलियत के अनुसार बदल लेते हैं ये गणिताचार्य ।।

स्त्री विमर्श

स्त्री घर से निकल कर फिर घर में आ जाती है। हर पल वह व्यस्त है पुरुष की परवरिश में । और पुरुष निगल जाता है स्त्री का पूरा वजूद  । क्या  कहीं से कोई परिवर्तन की आशा दिखाई देती है  !! शायद अब कुछ स्त्रियाँ पुरुष बनने की प्रक्रिया से गुजरने की सोच रहीं हैं  ।। पर पुरुष ने षड्यंत्रों की परिभाषाओं को बदल दिया है। एक नया जाल किया है तैयार " स्त्री विमर्श "।

आह्वान

हर वो जंजीर जो जकड़े हुए है तुम्हें दासता या विवशता में, तोड़ना होगा। और हाँ अपनी कोमलता और सहृदयता को अब आयुध में बदलना होगा।। पर ध्यान रहे तुम्हारा दायित्व सृजन का है, कहीं यह रौद्रता प्रलयंकर न बन जाए।।

झूठी अभिलाषा

अतृप्त मन की अतृप्त जिज्ञासा, शान्त क्षणों का उद्विग्न कुहासा। तुम्हारा आना सुखद था पर, जाना तुम्हारा दुखद क्यों है? शायद मन को अभी तुम्हारे आने की है आशा। जब चले ही गए हो, फिर रह रह कर क्यों आने की आहट भर देते हो। कितना दूँ अब मेरे दिल को झूठा सा दिलासा। यह पथ भी कितना कठिन है और क्रूर नियति की क्या यही गति है, करना है पूर्ण यह जीवन पथ लिए साथ एक झूठी अभिलाषा। अतृप्त मन की अतृप्त जिज्ञासा, शान्त क्षणों का उद्विग्न कुहासा।

आदमी का बचे रहना

मुझे भय है मरते हुए आदमी को बचा रहने का, मरा हुआ आदमी नहीं रखा जाता देर तक । लेकिन जिन्दगी की तलाश में, मरता है दिनों दिन। दुनिया के रहने से ज्यादा जरूरी है आदमी का रहना। क्योंकि लाशों से और लाशों में संवेदनाएँ नहीं होती हैं।

छीनने की कला

चिड़ियों ने छोड़ दिया है, अपने चूज़ों को चुगाना, अब वो सिखाती है चोंच मारकर दूसरों के दानों को छीनने की कला। आज के दौर में ठीक वैसे ही जरूरी हो गई है, छीनने की प्रवृत्ति जैसे है जरूरी जीना। अब लोगों ने धूप में अनाज सुखाना बन्द कर दिया है, और खेत खलिहानों में भी छूटे हुए दानों पर भी होने लगी है कालाबाजारी, और छीनने की कला अब अपराध नहीं, हो गई है पूर्ण न्यायिक और नितान्त ।

थकन

मेरी तल्खियाँ इतनी नागवार तो नहीं कि, तुझे मेरी सूरत से भी चुभन होने  लगी  । मैं तो जिन्दा हूँ तुझे अपना भर मानकर, तेरे बिन सांसों को भी घुटन होने  लगी  । काश बुझ गयी होती ये तमन्ना-ए-दिल, हर इक आरज़ू को भी जलन होने  लगी   । गजल कोई उपजे तो भला किस कदर, जब लफ्ज-लफ्ज को भी थकन होने  लगी   ।

सब कुछ होने को बैठा हूँ •••••-•

अपनी ही लाश पे रोने को बैठा हूँ; पाया भी नहीं और खोने को बैठा हूँ। दस्तूर कुछ ऐसा हुआ है चलन का, खुद का ही जनाज़ा ढोने को बैठा हूँ। धडकनों की कब्र में सांसों का कफन लिए, ता उम्र को यारों अब सोने को बैठा हूँ। इल्जाम कोई तेरे सर न आये, खुद ही  दाग -ए- कत्ल  धोने को बैठा हूँ। फिर भी ये जुर्रत या हिम्मत कहिये, कुछ भी न होकर सब कुछ होने को बैठा हूँ। अपनी ही लाश पे रोने को बैठा हूँ; पाया भी नहीं और खोने को बैठा हूँ।

कविता और मृत्यु

कभी पसीने की बूँद से  उपजती है कविता, कभी पेट की भूख से; कुछ जीवन मार दिए जाते हैं, जिन्दगी जीने से पूर्व ही।  वाह मृत्यु ! तू महान है, और तेरा  यथार्थ सत्य।