सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

अगस्त, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

धर्म हठ

मैंने भी बादल की  एक बूँद  के इन्तजार में; बिताया है पूरा एक बरस ! फिर मन मार कर धरती की छाती में  धँसा दिया  नुकीला हल ! क्योंकि  मुझे तो निभाना ही था, एक किसान का धर्म ; भले ही नष्ट हो जाय  एक और सभ्यता  अपने विकास के  चरमोत्कर्ष  परिणामों से !

१५ अगस्त -२०१३ : एक और कैलेंडर !

अभी कल ही लगा था कि देश आजाद हो गया है ! भले ही दो टुकड़े  होने के बाद  और "ग़दर" या  'शरणार्थियों' की बदत्तर हालातों से परे, देश ने भी महसूसा था  आज़ादी पन को ! धीरे-धीरे  बीत गये छियासठ बरस चमकती आँखों की  शून्यता में वो सरे  सपने ,  लोकतंत्र की राजनीति की  भेंट चढ़ गये ! अब राजनेता  या  'कार्पोरेट' ही मनाते हैं  आज़ादी का उल्लास! और  किसान का बच्चा  अब भी खड़ा है'  सर झुकाए  यस सर या  हाँ, मालिक ! एक सिवा  उसे नहीं है  आज़ादी बिसलेरी के बचे हुए पानी को  भी पीने की ! ४७ से १३ तक  कुछ बदला है तो  बस एक  "कैलेंडर"

आदमियत से आदमी तो न चुरा !

हँसते हैं लोग तो हँसने दो, खुद से नज़रें तो न चुरा ! कब छुपती है आईने से हकीकत, हकीकत से नजरें तो न चुरा ! हो रहा है ज़ार-ज़ार कफ़न, ताबूत से लाश तो न चुरा ! दुश्वार है जीना एक आदमी का, आदमियत से आदमी तो न चुरा ! मुफलिसी या अमीरी फर्क चश्मे का, भूख से निवाले तो न चुरा !

श्रमिक !

लफ्ज दर लफ्ज  जिन्दगी जीता  कभी धरती के सीने को  फाड कर उगाता जीवन; पहाडों को फोडकर; निकालता नदियाँ । जिसकी पसीने की  हर एक बूंद दर्शन का ग्रन्थ रचती । उसके जीवन का हर गुजरता क्षण ऋचाएं रचता ; हर सभ्यता का निर्माता तिरष्कृत और बहिष्कृत ही रहा सदियों से।