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अप्रैल, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मैं टूटता चला गया!

तुमने मुझे जो तोहफा-ए-गम दिए, हिफाजत में इनकी , मैं टूटता चला गया! मंजिले बहुत थीं इस जमाने में मगर हर एक मंजिल में , तुझे ढूंढता चला गया ! रात में पहले नींद फिर नींद  में ख्वाब   और  ख्वाबों में तुझको ही  ढूंढता चला गया! रह गया एक तू ही ख्यालों में अब , जहाँ के साथ खुद को ही भूलता चला गया ! आँख को या अश्कों को कहूं बेवफा, ये सवाल जिन्दगी से पूंछता चला गया ! तुमने मुझे जो तोहफा-ए-गम दिए, हिफाजत में इनकी , मैं टूटता चला गया! 

रूह लम्हों में बिखरती रही

रूह लम्हों में बिखरती रही जिश्म रास्ते बदलता रहा ! जिन्दगी ख्वाहिशों में सिमटती रही दिल अंजामों से दहलता रहा ! सांसों पे पहरा था मौत का , वख्त मुश्कों में मचलता रहा ! वहम था जिन्दा है हर कोई, यह तो सदमें में झुलसता रहा !

शायक और समाज

शायक ! तुमने तो जीने का ढंग, ढूढ़ लिया शब्दों में ! मगर  आम आदमी का  यूं साँस लेना मुनासिब नहीं ; यही शब्द, जो तुम्हें जीवन देते हैं; उसके लिए भ्रम जाल से कम नहीं ! शायद  यही अंतर है आम आदमी और  शायक के शब्द अभिव्यक्ति में ! जीवन  बन जाता है सरल और दुस्तर  इन्हीं अर्थों की बीथिका में उलझकर ! शब्दों के अर्थ को पा लेना फिर उन्हें अंगीकार करना ही सार्थक  बनाता है शायक का स्पस्ट प्रयोग !

स्त्री समर्पण

शायद  तुम भूल चुके हो, अपना प्रथम प्रणय निवेदन! मेरी पायल की झनक से, तीव्र हो जाता था स्पंदन ! अब मेरा  कुछ भी कहना  लगता है एक कांटे की चुभन ! जानती हूँ, नहीं तृप्त करता तुम्हारी सोंच, मेरा यौवन ! अनभिग्य  भी नहीं हूँ मैं, चिर परिचित है यह मनु-मन ! बस छोभ इतना भर है . प्रिये ! क्यों व्यर्थ होता स्त्री समर्पण !!