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जिंदगी कहाँ कहाँ से गुजरती चली गयी

जिंदगी कहाँ कहाँ से गुजरती चली गयी, दुःख-सुख के लम्हों से संवरती चली गयी। जैसे ही हुआ पैदा, रिश्तों ने बांध लिया, जोड़-तोड़ में जिंदगी बिखरती चली गयी। रोटी,पैसा और फिर अपनों की तलाश में राहे गुजर में यहाँ-वहाँ भटकती चली गयी। जिस दीवार के सर पे थी छत टिकी हुयी, क्यों वो नेह की दीवार दरकती चली गयी। जिंदगी कहाँ कहाँ से गुजरती चली गयी, दुःख-सुख के लम्हों से संवरती चली गयी।

हम हुए आजाद......., कि आज रोटी पकेगी।

हम हुए आज़ाद कि आज रोटी पकेगी, हुयी महंगी दाल कि तरकारी रंधेगी........ हम हुए आज़ाद.......... डंडे खाये -लाठी खायी और कुछ ने तो अपनी गरदन भी कटवायी, कि जशन पै आज मुला दारू बटेगी...... हम हुए आजाद........। सरकार बड़ी सरकारी है, जनता की तो लाचारी है। इस्कूल सबै गिर गए हैं मुला किताबें खूब बिकेंगी..... हम हुए आजाद.......। मरीज़ मरि रहे अस्पतालों में, डाकडर मस्त हैं भेड़चालों में मेडिसिन सब बिलैक् भईं, मुला दवाई खूब बनेंगी........ हम हुए आजाद......., कि आज रोटी पकेगी।