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फ़रवरी, 2014 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

आदमी का बचे रहना

मुझे भय है मरते हुए आदमी को बचा रहने का, मरा हुआ आदमी नहीं रखा जाता देर तक । लेकिन जिन्दगी की तलाश में, मरता है दिनों दिन। दुनिया के रहने से ज्यादा जरूरी है आदमी का रहना। क्योंकि लाशों से और लाशों में संवेदनाएँ नहीं होती हैं।

छीनने की कला

चिड़ियों ने छोड़ दिया है, अपने चूज़ों को चुगाना, अब वो सिखाती है चोंच मारकर दूसरों के दानों को छीनने की कला। आज के दौर में ठीक वैसे ही जरूरी हो गई है, छीनने की प्रवृत्ति जैसे है जरूरी जीना। अब लोगों ने धूप में अनाज सुखाना बन्द कर दिया है, और खेत खलिहानों में भी छूटे हुए दानों पर भी होने लगी है कालाबाजारी, और छीनने की कला अब अपराध नहीं, हो गई है पूर्ण न्यायिक और नितान्त ।

थकन

मेरी तल्खियाँ इतनी नागवार तो नहीं कि, तुझे मेरी सूरत से भी चुभन होने  लगी  । मैं तो जिन्दा हूँ तुझे अपना भर मानकर, तेरे बिन सांसों को भी घुटन होने  लगी  । काश बुझ गयी होती ये तमन्ना-ए-दिल, हर इक आरज़ू को भी जलन होने  लगी   । गजल कोई उपजे तो भला किस कदर, जब लफ्ज-लफ्ज को भी थकन होने  लगी   ।

सब कुछ होने को बैठा हूँ •••••-•

अपनी ही लाश पे रोने को बैठा हूँ; पाया भी नहीं और खोने को बैठा हूँ। दस्तूर कुछ ऐसा हुआ है चलन का, खुद का ही जनाज़ा ढोने को बैठा हूँ। धडकनों की कब्र में सांसों का कफन लिए, ता उम्र को यारों अब सोने को बैठा हूँ। इल्जाम कोई तेरे सर न आये, खुद ही  दाग -ए- कत्ल  धोने को बैठा हूँ। फिर भी ये जुर्रत या हिम्मत कहिये, कुछ भी न होकर सब कुछ होने को बैठा हूँ। अपनी ही लाश पे रोने को बैठा हूँ; पाया भी नहीं और खोने को बैठा हूँ।

कविता और मृत्यु

कभी पसीने की बूँद से  उपजती है कविता, कभी पेट की भूख से; कुछ जीवन मार दिए जाते हैं, जिन्दगी जीने से पूर्व ही।  वाह मृत्यु ! तू महान है, और तेरा  यथार्थ सत्य।