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भिक्षुक

लड़खड़ाते   कदमों से, लिपटा हुआ चिथड़ों से, दुर्बल तन, शिथिल मन; लिए हाँथ में भिक्षा का प्याला ! वह देखो भिक्षुक सभय, पथ पर चला आ रहा है/ क्षुधा सालती उदर को, भटक रहा वह दर-दर को, सभ्य समाज का वह बिम्ब; जिसमें उसने जीवन ढाला, खोकर मान-अभिमान, पथ पर चला आ रहा है/ हर प्राणी लगता दानी , पर कौन सुने उसकी कहानी, तिरिष्कार व घृणा से, जिसने  है उदर को पला ; घुट-घुट कर जीता जीवन, पथ पर चला जा  रहा है/ हाँथ पसारे, दाँत दिखाए, राम रहीम की याद दिलाये; मन को देता  ढा ढस; मुख पर डाले ताला, लिए  निकम्मा का कलंक, पथ पर चला जा  रहा है/