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जनवरी, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

जिजीविषा जीवन की !

जीना चाहते हो! क्या जीने की  जिजीविषा  शेष है तुममें  या समयपूर्व  मर चुकी है !! जब तुमें  संवेदनाओं की  अनुभूति ही  नहीं होती तो  फिर जीवन और  मृत्यु में  क्या अंतर शेष है? फिर क्यों जीना  चाहते हो ! पर अफ़सोस  हर कोई जीवन की  जिजीविषा में जीवन को  लक्ष्य हीन बना कर मृत प्राय हो गया है ! न जाने कब  पल-दो-पल का ही  लक्ष्य पूर्ण जीवन  जी पायेगा ये  भ्रमित मनुष्य !

पशु से सामाजिक प्राणी तक !

जन्म तो लिया था, मनुज के रूप में  पर भूख  ने विवश कर दिया, बनने को  पशु से बदत्तर ! आखिर जीवन को जीवित रखने के लिए  कुछ तो करना ही पड़ेगा! शायद यह  मानव और पशु का  वर्गीकरण ही  एक भ्रम ही है; अन्यथा  पशु और मानव में  क्या अंतर है ? या कुछ पशुओं ने  स्वयं को पृथक करने  हेतु  सिद्धांत बनाएं होंगे  पशु से सामाजिक प्राणी बनने के लिए;  जो आज उनकी नस्लों के लिए ही  बाधक बन गये हैं !

जिन्दगी है एक धूप छाँव सी;

जिन्दगी है एक धूप छाँव सी; पल-पल बदले शहर गाँव सी! कभी मिल जाते मीठे पल, कभी याद आते बीते कल; हंसाती , रुलाती, गुदगुदाती; कभी दुखती है जिन्दगी घाव सी; जिन्दगी है एक धूप छाँव सी; कभी अपने भी पराये हो जाते, कभी पराये भी अपने हो जाते! जश्न मानती है जिन्दगी कभी; तो कभी डगमगाती है नाव सी; जिन्दगी है एक धूप छाँव सी; अनजानी राहों से है गुजरती ; तो कभी ठहराव लाती जिन्दगी! जिन्दगी के हैं कई रंग-रूप: है ये जिन्दगी एक बहाव सी ; जिन्दगी है एक धूप छाँव सी; कभी सुबह की लाली है तो कभी लगती है  उदास शाम सी; चलते-चलते चली जाती है; यह  तो बस है एक पड़ाव सी, जिन्दगी है एक धूप छाँव सी; पल-पल बदले शहर गाँव सी! --                                                 ?

रेत पर बिखरा प्रेम!

मुझे मालूम है नहीं हो सकती तुम मेरी ! उम्र भर यादों के सहारे, जीने का असफल प्रयास  करोगी तुम! लेकिन घर, समाज और  झूठे सिद्धांतों का  प्रतिरोध करने की  हजार कोशिशों बाद भी  हिम्मत न जुटा पाओगी ! और मै तुम्हारा इन्तजार  करते-करते, आखिरी सांस को  पीछे छोड़ने में लगा हूँ ! यह प्रेम  कितना क्रूर है जो  दो जिंदगियों को  किश्तों में जीने को  मजबूर कर देता है! या शायद: मैं तुम्हारे मिथ्या  प्रेम को यथार्थ  मान कर सब कुछ समर्पित करता चला गया! जिसे तुमने एक  रेत के घरोंदे सा  मानकर स्मृतियों से मिटा दिया !    ? -- 

आह्वान !

तोड़ दो सपनो की दीवारे, मत रोको सृजन के चरण को , फैला दो विश्व के वितान पर, मत टोको वर्जन के वरण को ! जाने कितनी आयेंगी मग में बाधाएँ, कहीं तो  इन  बाधाओं का अंत होगा ही . कौन सका है रोक राह प्रगति की , प्रात रश्मियों के स्वागत का यत्न होगा ही ! प्रलय के विलय से न हो भीत, तृण- तृण  को सृजन से जुड़ने दो नीड़ से निकले नभचर को अभय अम्बर में उड़ने दो, जला कर ज्योति पुंजों को , हटा दो तम के आवरण को , तोड़ दो सपनो की दीवारे, मत रोको सृजन के चरण को!      ?

वक्त कुछ इस तरह बुरा है,

वक्त कुछ इस तरह बुरा है, अपनों को अपना कहना बुरा है! हर वो हवा जो बहारो से गुजरी, हवा का अब ठहरना बुरा है ! धडकनों को होंगी दिक्कतें बहुत, दिल में किसी के रहना बुरा है ! खुद को समझ न पाया कभी , किसी और को समझना बुरा है ! दोस्ती-दुश्मनी की रंज क्या कहें- दोनों में ही जीना -मरना बुरा है! वक्त कुछ इस तरह बुरा है, अपनों को अपना कहना बुरा है!    ?

संवेग संवेदनाओं का !

संवेदनाएं , हो चुकी हैं  चेतना शून्य ! अब ये इंसान  रह गया बनकर  एक हांड-मांस का पुतला भर , और इससे अब  उम्मीदें करना  व्यर्थ है ! यह मात्र  जिन्दा तो है पर इसकी कुछ करने  की क्षमता  लुप्त हो गयी है ! सांसें लेना भर जिन्दा होने के चिह्न नहीं हैं, और भी कुछ जरूरी है  इंसान होने के लिए, जब तक तुम्हारी  संवेदनाएं जीवित नहीं है , तुम जिन्दा कहाँ हो !      ?

क्या हूँ मैं?

मुझे वो पढ़ता रहा  गढ़ता रहा  कभी एलोरा की गुफाओं , कभी पिकासो की मनः स्थितियों में! लेकिन  कभी वो नहीं  बदल सका  अपनी संकुचित  और शंकालु  प्रवृत्ति  और  डसने को  तत्पर रहता है हर क्षण ! और आज तक मैं अनभिज्ञ   ही रही  मेरा  अस्तित्व  और मैं क्या हूँ  इस पुरुष प्रवृत्ति  के लिए !   ?

अंतिम पृष्ठ

कहानी उस रोज की  अब तक पढ़ता आ रहा हूँ; हर दिन एक नया पन्ना, मेरी आँखों में फड़फडाता है ! हर शाम मैं सोंचता हूँ  ये अंतिम पृष्ठ है  उस कहानी का, पर रात आते ही एक नये पन्ने की  उद्विग्नता  पूर्ण  शुरुवात हो जाती है ! मैं फिर से  पढने लग जाता हूँ  उस अधूरी कहानी को  इस जिज्ञासा से  शायद आज यह  अंतिम पृष्ठ होगा!   ?

अहसास!

दूर तक  देखता हूँ, एक तेरा ही  अक्श दिखता है ! हर पल  तेरा ही  अहसास  मेरे अन्तस् में  छाया रहता है ! पर जब  स्वप्न टूटता है  एक ही झटके में  ख्यालों ओर  अहसासों का  बवंडर  न जाने कहाँ  चला जाता है, और यादों का  एक मुस्कुराता हुआ  अहसास  मेरे पास  ठहर जाता  है !   ?

हे मेरे मानव प्रियवर, मैं भी मानव हूँ !

हे मेरे मानव प्रियवर, मैं भी मानव हूँ; तुम करते आशाएं, मिले न मुझसे निराशाएं; करता मैं भी प्रयास पर, इस जग में मैं भी अभिनव हूँ; हे मेरे मानव प्रियवर, मैं भी मानव हूँ; तुम चाहते मेरे कर्मों में न त्रुटि हो, कैसे करूं कर्म, जिससे तुम्हें भी संतुष्टि हो; फिर भी जीवन में कर्मरत हूँ, तेरा ही तो बांधव हूँ; हे मेरे मानव प्रियवर, मैं भी मानव हूँ; चल रहा द्वंद्व मेरे भी अंतर भंवर में, दया,द्वेष,प्रेम, हर्ष है , मेरे भी उर में; नहीं मैं सर्वग्य, मैं भी अतिगव हूँ; हे मेरे मानव प्रियवर, मैं भी मानव हूँ; तुम चाहते जीवन के झंझावातों में सहारा दूं; लहरों की थपेड़ों में, डगमग होती नाव  को किनारा दूं; तुम समझते वट विटप, मै भी पल्लव हूँ; हे मेरे मानव प्रियवर, मैं भी मानव हूँ; माया प्रपंच से मैं भी व्योमोहित हूँ; समर्पित हूँ पूर्ण पर कामना से लिप्त हूँ; नहीं मैं अमर्त्य मैं भी अवयव हूँ; हे मेरे मानव प्रियवर, मैं भी मानव हूँ; संघर्ष तो जीवन का आलम्बन है' सहिष्णु होना तो मानव का स्वालम्बन है; महाकाल से मैं भी अतिभव हूँ हे मेरे मानव प्रियवर