सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

अक्तूबर, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

कर्मनाशाएं!

सागर को कर समर्पित सर्वस्व, सूख जाती हैं निस्त्राएँ; लेकिन इनका अस्तित्व, बनाये रखता है ससागर को; पर कभी-कभी कुछ निस्त्राएँ; जो होती हैं पवित्र और निर्मल बन जाती हैं , छोटी- बड़ी कर्मनाशाएं! जिनकी हारें कभी-कभी हो जाया करती हैं असम्भव! *************************** निस्त्राएँ=नदियाँ !

स्त्रीत्व : समर्पण का छद्म पूर्ण सम्मान !

सुलगती आहों का , समन्दर लेकर वह; जीती है जिन्दगी ! उसकी सर्द आहों की तपिश झुलसा रही है; सारे बदन को ! अंग-अंग हो चुका है घायल; उसके अपनों के दिए हुए जख्मों से ! फिर भी वह, जिए जा रही है पीकर वेदना की लाल शिखाएं! यातनाओं के सारे आयाम पीछे छोड़ते हुए, बस जीना ही जीना सीखा है उसने! कभी-कभी सोंचती है; कर दे बगावत, नहीं चाहिए उसको अब कोई मिथ्या अस्तित्व ! और अभी तक उसके अस्तित्व के जो मिथ्या प्रतिमान हैं भी वह कितने सार्थक? नहीं अब मिटा देगी; अपना यह मिथ्या अस्तित्व और नहीं, चाहिए त्याग और समर्पण का छद्म पूर्ण सम्मान !

स्त्री !

चाणक्य ! तुमने कितनी , सहजता से कर दिया था; एक स्त्री की जीविका का विभाजन ! पर, तुम भूल गये! या तुम्हारे स्वार्थी पुरुष ने उसकी आवश्यकताओं और आकाँक्षाओं को नहीं देखा था! तुम्हें तनिक भी, उसका विचार नही आया; दिन - रात सब उसके तुमने अपने हिस्से कर लिए! और उसका एक पल भी नहीं छोड़ा उसके स्वयं के जीवन जीने के लिए!

टूट कर जो न बिखरे वो शख्सियत है,

टूट कर जो न बिखरे वो शख्सियत है, वरना जमाने में कमी नहीं आदमी की ! गिर कर जो फिर सम्भल जाय ठोकरों से, देता है जमाना मिसाल उस आदमी की ! हर एक गम में जो मुस्कराता रहे सदा, पूरी होती तमन्ना-ए-जिन्दगी उस आदमी की ! हालतों से लड़ जीत लेता है जो जंग-ए- जिन्दगी, आसाँ हो जाती है राह -ए-मंजिल उस आदमी की ! जो बनता है मुकद्दर मिटाकर खुद की हस्ती को, और भी संवर जाती है जिन्दगी उस आदमी की ! टूट कर जो न बिखरे वो शख्सियत  है, वरना जमाने में कमी नहीं आदमी की !

गम-ए- पुरसिसी का आलम न पूँछिये,

गम-ए- पुरसिसी का आलम न पूँछिये, सब आये हँसने मेरे हालात पर ! ये कोई अदालत नहीं है गुनाह-ए- इश्क की, जो हो रहे हैं सवाल-सवालात पर ! इल्ज़ामों से बेहतर खामोश रहना ठीक, लगा लिए हैं ताले जज़्बात पर ! ऐ बंदे! किसने दिया है तुमको ये हक, लगाओ कोई इल्ज़ाम कायनात पर ! वो कफ़न साथ लाये थे, न थी उन्हें कोई; शक-ओ-शुबा उनके इन्तजामात पर ! गम-ए- पुरसिसी का आलम न पूँछिये, सब आये हँसने मेरे हालात पर !

जरा सम्भाल के दफ़्न करना मुझे,

जरा सम्भाल के दफ़्न करना मुझे, धडकनों से वो अभी-अभी जुदा हुए हैं ! मना तो लेते उन्हें हर एक शर्त पे, न जाने वो किस बात पर खफ़ा हुए हैं! इल्जाम उन पर न आये इन जख्मों के, जिस कदर मेरे दिल पे जफ़ा हुए हैं ! उन की सदायें जो थीं साथ मेरे, हक उन दुआओं के सब अदा हुए हैं ! अब तक थे ख़यालों में खोये हुए, जिन्दगी से अभी-अभी अता हुए हैं! जरा सम्भाल के दफ़्न करना मुझे, धडकनों से वो अभी-अभी जुदा हुए हैं !

अशआर मे अश्क-ए-गम इजाद हुए हैं

क्योँ ना सजा लूँ ग़म ए हस्ती अब्तर  , जो अशआर मे अश्क-ए-गम इजाद हुए हैं ! रहबर ने गर्दिश-ए- खाकसार बना दिया, जैसे तूफां के झोकों से दरख्त बर्बाद हुए है ! हर वक्त जो भी वख्त में मिला वो सब, गम-ए- फुरकत में मेरे ही इन्दाद हुए हैं ! चश्म-ए-दीदार की जादूगिरी को क्या कहें, शेख और सूफी भी न इनसे आजाद हुए है ! उजड़े ही हैं चमन यहाँ इश्क-ए-राह पर, कहाँ - कब घरौंदें घास के आबाद हुए हैं ! क्योँ ना सजा लूँ ग़म ए हस्ती अब्तर , जो अशआर मे अश्क-ए-गम इजाद हुए हैं !

इंतजार, इंतजार करो

तुम्हें याद होगा! नीली रोशनी में काँपते हुए   नीले होंठों से कहा था- "--------------------!"    तुम्हें याद होगा!  सावन की हल्की   फुहारों में सकुचाते ह्रदय से कहा था-  "------------------!"    तुम्हें याद होगा!  अंगीठी के पास   लाल सुर्ख चेहरे   से  शर्माते हुए कहा था-  "----------------!"    और यह कहती हुई  मुझे तनहाई में   सन्नाटे देकर चली गयी-  " इंतजार, इंतजार करो ! "

वर्तिका

दिए की जलती हई; यह वर्तिका; स्वयं जलकर प्रकाश दे रही है! इस तमीशा में भी तम हरने का एक  सूक्ष्म प्रयास कर रही है! नही झलकता कोई स्वार्थ इसका, निःस्वार्थ जल रही है! बनकर दिवाकर का प्रतीक  निशा में भी पथ  प्रदर्शित कर रही है! है यही प्रकृति इसकी, मानव जीवन का लक्ष्य  सतत अग्रसर कर रही है ! प्रभात की प्रतीक्षा में  यह ऊषा तक जल रही है! ज्योति प्रकाशित है  पथ आलोकित करने को, देती संदेश जीवन में लक्ष्य हेतु उत्साह भरने को, आलोक रश्मियाँ है  कटिबद्ध तम हरने को! मानव के जीवन को  कर्तव्य हेतु कृतसन करने को !

पतिता

जिश्म को बेंच कर, वह पालती उदर; पतिता कहाती वह, पर क्या वह पतिता ही है? क्यों,कैसे पतित हुयी, सहयोग तुम्हारा भी तो है! बनाने को पतिता, तुमने ही विवश किया; फिर उसको यह नाम दिया , चंद चंडी के टुकड़े, बनाते मिटाते  उसके अस्तित्व को  तुम्हारी भूख में  वह सेंकती रोटियां; भूख मिटाने को वह लुटाती नारीत्व   नारी बचाने को/ वासना भरी आँखें ही  हर तरफ दिखीं, घर - परिवार और समाज  सब बहसी लगें कहाँ जाय  किस-किस से बचे हर तरफ दरिंदगी दिखे! पर करती जो समाज को पतित; क्या वो पतिता ही कहलाती हैं? आज भी लज्जित होता  समाज उनसे, फिरभी सभ्यता की भीड़ में  वो सभी ही  कही जाती हैं!!

अन्तर्द्वन्द्व

अन्तर्द्वन्द्व उद्वेलित करता  अंतर्मन को, क्या?  इस निबड़े तम पश्चात  निशा के व्यतीत होने पर, अरुणोदय की लाली  पुन: शृंगार करेगी  इस धरा का? या यूं ही  निराशा की इस निशा में  निशांत के नक्षत्र सदृश्य , आशा का आभास हो जायेगा अदृश्य! क्या कल्पना - कल्पना ही रहेगी या होगी साकार? क्या अत्क की  स्वर्णिम रश्मियाँ  धरा के कंठ में  नहीं डालेंगी  मुक्ताहार ? क्या श्रांत हो चला वह भी - निमीलित कर लो चक्षु , अब प्रकाश अर्थ हीन होगया ! ठहरो ! वह देखो दूर कहीं, टिमटिमा रहा है ज्योतिपुंज , प्रतीक्षा में वह  प्रकाश का परिचय करा रहा है/ अरे! हाँ देखो, प्राची से कुछ बधूटिकाएं  शृंगार थाल लिए  चली आ रहीं हैं  धरा की ओर, करने को शृंगार, डालने को मुक्ताहार ! अवगुंठन हटा दो, स्वयं को जागृत करो, अब निशा छटने वाली है  वह देखो दूर  वहाँ क्षितिज पर  आशा की पौ फटने वाली है !