दिए की जलती हई;
यह वर्तिका;
स्वयं जलकर
प्रकाश दे रही है!
इस तमीशा में भी
तम हरने का एक
सूक्ष्म प्रयास कर रही है!
नही झलकता कोई स्वार्थ इसका,
निःस्वार्थ जल रही है!
बनकर दिवाकर का प्रतीक
निशा में भी पथ
प्रदर्शित कर रही है!
है यही प्रकृति इसकी,
मानव जीवन का लक्ष्य
सतत अग्रसर कर रही है !
प्रभात की प्रतीक्षा में
यह ऊषा तक जल रही है!
ज्योति प्रकाशित है
पथ आलोकित करने को,
देती संदेश जीवन में
लक्ष्य हेतु उत्साह भरने को,
आलोक रश्मियाँ है
कटिबद्ध तम हरने को!
मानव के जीवन को
कर्तव्य हेतु कृतसन करने को !
यह वर्तिका;
स्वयं जलकर
प्रकाश दे रही है!
इस तमीशा में भी
तम हरने का एक
सूक्ष्म प्रयास कर रही है!
नही झलकता कोई स्वार्थ इसका,
निःस्वार्थ जल रही है!
बनकर दिवाकर का प्रतीक
निशा में भी पथ
प्रदर्शित कर रही है!
है यही प्रकृति इसकी,
मानव जीवन का लक्ष्य
सतत अग्रसर कर रही है !
प्रभात की प्रतीक्षा में
यह ऊषा तक जल रही है!
ज्योति प्रकाशित है
पथ आलोकित करने को,
देती संदेश जीवन में
लक्ष्य हेतु उत्साह भरने को,
आलोक रश्मियाँ है
कटिबद्ध तम हरने को!
मानव के जीवन को
कर्तव्य हेतु कृतसन करने को !
कटिबद्ध तम हरने को ...
जवाब देंहटाएंअनुपम भाव लिये उत्कृष्ट अभिव्यक्ति ।
प्रेरक उत्कृष्ट रचना,,,बहुत बढ़िया आभिव्यक्ति,,,,
जवाब देंहटाएंसुंदर भाव ....
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर..
जवाब देंहटाएंकल 13/10/2012 को आपकी यह खूबसूरत पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
बढ़िया आभिव्यक्ति...........
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