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? क्यों और कब तक !

सदियों से, हैवानियत कर रही तांडव, इंसानों की शक्ल में बन कर हैवान ! और न जाने कितनी ही "दमिनियाँ" स्वाहा होती रहेंगी, इस हैवान की हवस में! कब ये दमिनियाँ, बनेंगी दावानल, जो निगल जाएँगी हैवानों की नस्ल; हर हैवानियत पर कुछ सहानुभूतियाँ, क्या मिटा सकती हैं यह हैवानियत ? और, क्या रोक पाएंगी इन हैवानों को फिर से किसी दामिनी को इस तरह जिदगी और समाज से लड़ते-लड़ते मर जाने से !

कुछ लावारिश बच्चे !

साँझ के झुरमुट से झांकता एक  नन्हा पक्षी  जिसे प्रतीक्षा है अपनी  माँ की ! सुबह से गयी थी  जो कुछ दानों की  खोज में ! दिनभर भटकने के बाद  तब कहीं जाकर  अनाज की मंडी में  मिले थे  चार दाने  घुने हुए गेंहूं के ! चोंच में दबाये  सोंच रही है , इन चार दानों से  तीन जीवों का  छोटा पेट भर पायेगा  या कि रात कटेगी  चाँद को  ताकते हुए!  तभी उसे नजर आया  उसका अपना घर और  वह  चूजा जिसे छोड़ कर निकली थी भोजन की तलाश में ! क्या कहेगी अपनों से  बस दिन भर में मिले  केवल यही चार दाने ! फिर याद आया उसे मंदिर के कोने में  बैठा हुआ एक अपाहिज  और उसका सूना  कटोरा! और कूड़े के ढेर पर पड़ी हुयी  रोटियों के लिए  लड़ते हुए  कुछ लावारिश बच्चे ! तसल्ली देकर  खुद से बोली  कमसे कम मेरा चूजा  लावारिश और  अपाहिज तो  नहीं है  आज एक दाना  ही खाकर  चैन  से सो तो सकेगा  !

उदासी उस रात की -3

उदासी उस रात की - भाग -1 रात का हिसाब माँगने जब चाँद, आयेगा तुम्हारे पास ! सांसों की गर्म तपिस में झुलसी वो बिस्तर की सलवटें कैसे बयाँ कर पाएंगी गुजरी रात की वो दास्ताँ ! अपलक आँखों से इन्तजार में गुजार दी जो तुमने वो रात अपने चाँद के लिए !! तुमने तो पढ़ लिए थे, काम के सभी सूत्र अपनी आँखों के स्वप्न में ! टूट चुका था बदन मिलन की  कल्पना से, रह गयी थी शेष वेदना आछिन्न ह्रदय में ! आया जब चाँद खिड़की पर तुम्हारी वह भी कराह उठा, देख कर उदास रात को ! चला गया वापस प्रेयसी को उदास पाकर: डर था उसे कहीं देर से आने का हिसाब न देना पड़ जाय उसे  !! उदासी उस रात की - भाग -२  गुमसुम उदास है तब से यह चाँद; उस रोज जब चाँद आया था; तुम्हारी खिड़की पर! दरवाजे पर अपलक ठहरी हुयी आँखों में पाकर; किसी की प्रतीक्षा, ठिठक गया था चाँद; उस रोज जब चाँद आया था; तुम्हारी खिड़की पर! मानो तुम्हारी तपिस में झुलस गयी है, ज्योत्स्ना की स्निग्धता, और तबसे सुलग रहा है यह चाँद! उस रोज जब चाँद आया था;

देखूँगी मैं अभी उन्हें नयन भर....!

अभी-अभी  तो वे गये हैं  आने को कह कर, अभी तो  बीते हैं   कुछ ही बरस, कुछ भी तो नहीं  हुआ है नीरस/ खुला ही  रहने दो  इस घर का यह दर.....! अभी-अभी  तो वे गये हैं  आने को कह कर, हर- आहट  पर, चौंक उठती, रह-रह कर  कहता  क्षण धीरज धर, भ्रम से  न मन भर , कहाँ टूटी है सावन की सब्र.....! अभी-अभी  तो वे गये हैं  आने को कह कर, अभी तो  ऑंखें ही  पथराई हैं, कहाँ  अंतिम घड़ी  आयी है , अभी  प्रलय की घटा कहाँ   छाई है,  देखूँगी मैं अभी  उन्हें नयन भर....!

मुझे वह मूल्य चाहिए!

मुझे वह मूल्य चाहिए! जो मैंने चुकाया है, तुम्हारे ज्ञान प्राप्ति हेतु, हे! अमिताभ; मुझे वह मूल्य चाहिए! क्या पर्याप्त नहीं थे वो चौदह वर्ष! कि पुनः त्याग दिया सपुत्र! तुम तो मर्यादा पुरुष थे हे पुरुषोत्तम ! मुझे वह मूल्य चाहिए! और हे जगपालक ! मेरा पतिव्रता होना भी बन गया अभिशाप! और देव कल्याण हेतु; भंग कर दिए स्व निर्मित नियम ! हे जगतपति ! मुझे वह मूल्य चाहिए! पर सोंच कर परिणाम; दे रही हूँ क्षमा दान, क्योंकि मेरा त्याग न हो जाय कलंकित और मूल्यहीन! रहने दो इसे अमूल्य; नहीं!  वह मूल्य चाहिए!

उड़ीसा के तंत्री

" कहने को मयस्सर हैं रोटियां, पर कीमतें है यहाँ पर अलहदा ! " एक तंत्री अपनी पुरानी हस्त-तंत्री के पास बैठा कभी चूल्हे की ओर, कभी हस्त-तंत्री पर, उसकी झुर्रियों वाली आँखें टिक जाती हैं! कभी बुनता था इन धागों से अपनी जीविका और जिन्दगी के दिन-रात, हाँ " महाजन " के हजार रुपये जो मजदूरी है पांच तंत्रियों की पूरे सात दिन की भर देती है सूनी थाली कुछ पलों के लिए ! " उड़ीसा के सोनपुर जिले में "कुस्टापाडा" के बुनकरों से बात करने के पश्चात !" शब्दार्थ : हस्त -तंत्री= जुलाहे का करघा, तंत्री= बुनकर !

ऑक्टोपस

ऑक्टोपस; सागर की तलहटी में, या समाज की मुंडेर पर, लीलते जलीय तुच्छ जन्तु या जीते-जागते मानव का पूरा-पूरा शरीर! चूंस कर उनकी रगों की रंगत, व् निचोड़ कर उसका मकरंद; हमारे बीच, हममें से ही जाने कितने ऑक्टोपस छिपे हुए लपेटे चोला मानव का; पहचानना होगा, अंतर जानना होगा , हमें ऑक्टोपस से मानव का !

रिश्ते !

रिश्ते और उनके मायने न जाने कहाँ छूट गये ! सारी संवेदनाएं मात्र एक नाटक पात्र स दृश्य प्रदर्शित की जाती हैं ! मार्मिक दुर्घटनाओं पर आलेख, टिप्पणी पुस्तक रचना या या फिल्मांकन किया जा सकता है! परन्तु, इन संवेदनाओं से जुड़े कोमल तंतु जैसे रिश्तों के आयाम और मूल्य स्थापित करना , निरर्थक और विडम्बना पूर्ण हैं! पर अर्थ के उपार्जन हेतु  रिश्तो को बेंच देते है और उनका गला घोटने में भी कोई ग्लानि नही होती !

तुम कहाँ हो?

प्रियवर तुम कहाँ हो?   तुम कहाँ हो?  मेरी कश्ती के किनारे, मेरे जीवन के सहारे; तन मन मेरे,    तुम कहाँ हो?  प्रियवर तुम कहाँ हो?   तुम कहाँ हो?  मन के नूतन अभिनन्दन ! सुंदर जीवन के नवनंदन, प्राण धन मेरे,  तुम कहाँ हो?  प्रियवर तुम कहाँ हो?   तुम कहाँ हो?  जीवन के नूतन अभिराम, मन मंदिर के प्रिय घनश्याम, प्रेम बंधन मेरे   तुम कहाँ हो?  प्रियवर तुम कहाँ हो?   तुम कहाँ हो?  ढूढ़ते जिसे ये सूने नयन, पुकारे जिसे ये प्यासा मन; समर्पण मेरे,  तुम कहाँ हो?  प्रियवर तुम कहाँ हो?   तुम कहाँ हो? 

असत्य, अस्तित्त्व सत्य का

  असत्य ,  जिसने   बदला   इतिहास , जिसके   न   होने   पर   होता   है   सत्य   का   परिहास ! असत्य , न   रखते   हुए   अस्तित्त्व , करता   सत्य   को   साकार ; सत्य   का   जब   हुआ   उपहास , असत्य   से   ही   मिला   प्रभास ! किचित असत्य   नहीं    होता   यथार्थ !   परन्तु ,  सत्य   के   महत्त्व   का   आधार   है   यही   असत्य , हम   अब   भी   सत्य   औ   असत्य    के   महत्त्व   के   मध्य , हैं    विभ्रमित   और   विस्मित  ! इस   पार   है   असत्य  , उस   पार   वह   प्रत्यक्ष  , सत्य  !!

कर्मनाशाएं!

सागर को कर समर्पित सर्वस्व, सूख जाती हैं निस्त्राएँ; लेकिन इनका अस्तित्व, बनाये रखता है ससागर को; पर कभी-कभी कुछ निस्त्राएँ; जो होती हैं पवित्र और निर्मल बन जाती हैं , छोटी- बड़ी कर्मनाशाएं! जिनकी हारें कभी-कभी हो जाया करती हैं असम्भव! *************************** निस्त्राएँ=नदियाँ !

स्त्रीत्व : समर्पण का छद्म पूर्ण सम्मान !

सुलगती आहों का , समन्दर लेकर वह; जीती है जिन्दगी ! उसकी सर्द आहों की तपिश झुलसा रही है; सारे बदन को ! अंग-अंग हो चुका है घायल; उसके अपनों के दिए हुए जख्मों से ! फिर भी वह, जिए जा रही है पीकर वेदना की लाल शिखाएं! यातनाओं के सारे आयाम पीछे छोड़ते हुए, बस जीना ही जीना सीखा है उसने! कभी-कभी सोंचती है; कर दे बगावत, नहीं चाहिए उसको अब कोई मिथ्या अस्तित्व ! और अभी तक उसके अस्तित्व के जो मिथ्या प्रतिमान हैं भी वह कितने सार्थक? नहीं अब मिटा देगी; अपना यह मिथ्या अस्तित्व और नहीं, चाहिए त्याग और समर्पण का छद्म पूर्ण सम्मान !

स्त्री !

चाणक्य ! तुमने कितनी , सहजता से कर दिया था; एक स्त्री की जीविका का विभाजन ! पर, तुम भूल गये! या तुम्हारे स्वार्थी पुरुष ने उसकी आवश्यकताओं और आकाँक्षाओं को नहीं देखा था! तुम्हें तनिक भी, उसका विचार नही आया; दिन - रात सब उसके तुमने अपने हिस्से कर लिए! और उसका एक पल भी नहीं छोड़ा उसके स्वयं के जीवन जीने के लिए!

टूट कर जो न बिखरे वो शख्सियत है,

टूट कर जो न बिखरे वो शख्सियत है, वरना जमाने में कमी नहीं आदमी की ! गिर कर जो फिर सम्भल जाय ठोकरों से, देता है जमाना मिसाल उस आदमी की ! हर एक गम में जो मुस्कराता रहे सदा, पूरी होती तमन्ना-ए-जिन्दगी उस आदमी की ! हालतों से लड़ जीत लेता है जो जंग-ए- जिन्दगी, आसाँ हो जाती है राह -ए-मंजिल उस आदमी की ! जो बनता है मुकद्दर मिटाकर खुद की हस्ती को, और भी संवर जाती है जिन्दगी उस आदमी की ! टूट कर जो न बिखरे वो शख्सियत  है, वरना जमाने में कमी नहीं आदमी की !

गम-ए- पुरसिसी का आलम न पूँछिये,

गम-ए- पुरसिसी का आलम न पूँछिये, सब आये हँसने मेरे हालात पर ! ये कोई अदालत नहीं है गुनाह-ए- इश्क की, जो हो रहे हैं सवाल-सवालात पर ! इल्ज़ामों से बेहतर खामोश रहना ठीक, लगा लिए हैं ताले जज़्बात पर ! ऐ बंदे! किसने दिया है तुमको ये हक, लगाओ कोई इल्ज़ाम कायनात पर ! वो कफ़न साथ लाये थे, न थी उन्हें कोई; शक-ओ-शुबा उनके इन्तजामात पर ! गम-ए- पुरसिसी का आलम न पूँछिये, सब आये हँसने मेरे हालात पर !

जरा सम्भाल के दफ़्न करना मुझे,

जरा सम्भाल के दफ़्न करना मुझे, धडकनों से वो अभी-अभी जुदा हुए हैं ! मना तो लेते उन्हें हर एक शर्त पे, न जाने वो किस बात पर खफ़ा हुए हैं! इल्जाम उन पर न आये इन जख्मों के, जिस कदर मेरे दिल पे जफ़ा हुए हैं ! उन की सदायें जो थीं साथ मेरे, हक उन दुआओं के सब अदा हुए हैं ! अब तक थे ख़यालों में खोये हुए, जिन्दगी से अभी-अभी अता हुए हैं! जरा सम्भाल के दफ़्न करना मुझे, धडकनों से वो अभी-अभी जुदा हुए हैं !

अशआर मे अश्क-ए-गम इजाद हुए हैं

क्योँ ना सजा लूँ ग़म ए हस्ती अब्तर  , जो अशआर मे अश्क-ए-गम इजाद हुए हैं ! रहबर ने गर्दिश-ए- खाकसार बना दिया, जैसे तूफां के झोकों से दरख्त बर्बाद हुए है ! हर वक्त जो भी वख्त में मिला वो सब, गम-ए- फुरकत में मेरे ही इन्दाद हुए हैं ! चश्म-ए-दीदार की जादूगिरी को क्या कहें, शेख और सूफी भी न इनसे आजाद हुए है ! उजड़े ही हैं चमन यहाँ इश्क-ए-राह पर, कहाँ - कब घरौंदें घास के आबाद हुए हैं ! क्योँ ना सजा लूँ ग़म ए हस्ती अब्तर , जो अशआर मे अश्क-ए-गम इजाद हुए हैं !

इंतजार, इंतजार करो

तुम्हें याद होगा! नीली रोशनी में काँपते हुए   नीले होंठों से कहा था- "--------------------!"    तुम्हें याद होगा!  सावन की हल्की   फुहारों में सकुचाते ह्रदय से कहा था-  "------------------!"    तुम्हें याद होगा!  अंगीठी के पास   लाल सुर्ख चेहरे   से  शर्माते हुए कहा था-  "----------------!"    और यह कहती हुई  मुझे तनहाई में   सन्नाटे देकर चली गयी-  " इंतजार, इंतजार करो ! "

वर्तिका

दिए की जलती हई; यह वर्तिका; स्वयं जलकर प्रकाश दे रही है! इस तमीशा में भी तम हरने का एक  सूक्ष्म प्रयास कर रही है! नही झलकता कोई स्वार्थ इसका, निःस्वार्थ जल रही है! बनकर दिवाकर का प्रतीक  निशा में भी पथ  प्रदर्शित कर रही है! है यही प्रकृति इसकी, मानव जीवन का लक्ष्य  सतत अग्रसर कर रही है ! प्रभात की प्रतीक्षा में  यह ऊषा तक जल रही है! ज्योति प्रकाशित है  पथ आलोकित करने को, देती संदेश जीवन में लक्ष्य हेतु उत्साह भरने को, आलोक रश्मियाँ है  कटिबद्ध तम हरने को! मानव के जीवन को  कर्तव्य हेतु कृतसन करने को !

पतिता

जिश्म को बेंच कर, वह पालती उदर; पतिता कहाती वह, पर क्या वह पतिता ही है? क्यों,कैसे पतित हुयी, सहयोग तुम्हारा भी तो है! बनाने को पतिता, तुमने ही विवश किया; फिर उसको यह नाम दिया , चंद चंडी के टुकड़े, बनाते मिटाते  उसके अस्तित्व को  तुम्हारी भूख में  वह सेंकती रोटियां; भूख मिटाने को वह लुटाती नारीत्व   नारी बचाने को/ वासना भरी आँखें ही  हर तरफ दिखीं, घर - परिवार और समाज  सब बहसी लगें कहाँ जाय  किस-किस से बचे हर तरफ दरिंदगी दिखे! पर करती जो समाज को पतित; क्या वो पतिता ही कहलाती हैं? आज भी लज्जित होता  समाज उनसे, फिरभी सभ्यता की भीड़ में  वो सभी ही  कही जाती हैं!!

अन्तर्द्वन्द्व

अन्तर्द्वन्द्व उद्वेलित करता  अंतर्मन को, क्या?  इस निबड़े तम पश्चात  निशा के व्यतीत होने पर, अरुणोदय की लाली  पुन: शृंगार करेगी  इस धरा का? या यूं ही  निराशा की इस निशा में  निशांत के नक्षत्र सदृश्य , आशा का आभास हो जायेगा अदृश्य! क्या कल्पना - कल्पना ही रहेगी या होगी साकार? क्या अत्क की  स्वर्णिम रश्मियाँ  धरा के कंठ में  नहीं डालेंगी  मुक्ताहार ? क्या श्रांत हो चला वह भी - निमीलित कर लो चक्षु , अब प्रकाश अर्थ हीन होगया ! ठहरो ! वह देखो दूर कहीं, टिमटिमा रहा है ज्योतिपुंज , प्रतीक्षा में वह  प्रकाश का परिचय करा रहा है/ अरे! हाँ देखो, प्राची से कुछ बधूटिकाएं  शृंगार थाल लिए  चली आ रहीं हैं  धरा की ओर, करने को शृंगार, डालने को मुक्ताहार ! अवगुंठन हटा दो, स्वयं को जागृत करो, अब निशा छटने वाली है  वह देखो दूर  वहाँ क्षितिज पर  आशा की पौ फटने वाली है !

प्रतीक्षा

अभी-अभी  तो वे गये हैं  आने को कह कर, अभी तो  बीते हैं  कुछ ही बरस, कुछ भी तो नहीं  हुआ है नीरस! खुला ही  रहने दो  इस घर का यह दर.....! अभी-अभी  तो वे गये हैं  आने को कह कर, हर- आहट  पर, चौंक उठती, रह-रह कर  कहता  क्षण धीरज धर, भ्रम से  न मन भर , कहाँ टूटी है सावन की सब्र.....! अभी-अभी  तो वे गये हैं  आने को कह कर, अभी तो  ऑंखें ही  पथराई हैं, कहाँ  अंतिम घड़ी  आयी है , अभी  प्रलय की घटा कहाँ   छाई है,  देखूँगी मैं अभी  उन्हें नयन भर....!

अस्तित्व

थक चुकी है  अब धरती; जीवन का भार ढोते -ढोते! बिखर जाना चाहती है  टूट कर, होना चाहती है विलीन  आकाश गंगा में; पुनः अपने अस्तित्व के लिए! बस प्रतीक्षा है  इसको उस "asteroid" का  जो अनंत से आ रहा है लिए एक विनाश  और पुनर्निर्माण के  प्रारम्भ का नया सोपान! ऐसे ही कितने  होते रहते है विनाश; और सृजन की प्रक्रिया चलती रहती है अनवरत! और यह "black hole" बनता रहता है, अनंत आकाश गंगाएं !

.................आदत सी हो गयी !

उल्फत -ए-रुसवाई  में  जो  मिली  जुदाई , तन्हाई  में  जीने  की  आदत  सी  हो  गयी ...............! गुजरे  हैं  जिन्दगी  के  उस  मुकाम  से  , हर  गम  पीने  की  आदत  सी  हो  गयी ..................! अब  तो  बस  दिए  हुए  उन  जख्मों  को , यादों  में  सीने  की  आदत  सी  हो  गयी .................! खुद  मेरी  मंजिल  मालूम  नहीं  मुझे , भीड़  में  खो  जाने  की  आदत  सी  हो  गयी ............! ये  ज़िंदगी  तो  अब  मुकद्दर  बन  गयी , सजा -ए - मौत  पाने  की  आदत  सी  हो  गयी . .......! सैयाद  तेरा  दाम  कितना  ही  नाजुक  हो , इस  में  फडफड़ाने   की  आदत  सी  हो  गयी ...........! उल्फत -ए-रुसवाई में जो मिली जुदाई , तन्हाई में जीने की आदत सी हो गयी ....... ........ .!

टूटा जो ख़्वाब इकरार करते-करते

एक मुद्दत से प्यासी थीं नजरें, रात गुज़र गयी दीदार करते-करते! लफ्ज़ मचलते ही रहे लबों पे; टूट गयी सब्र इजहार  करते- करते! शब- ए- फुरकत में सिमट गये लम्हे; उभरे जो ज़ख्म ऐतबार  करते- करते! रूह से इक आह सी निकल गयी; टूटा जो ख़्वाब इकरार  करते- करते! एक मुद्दत से प्यासी थीं नजरें, रात गुज़र गयी दीदार करते-करते!

कृत्यांत

लक्ष्य विहीन पथ पर; भ्रमित गतिज है यह जीवन! न स्थायित्व न ही आलम्बन दृढ़; नीरवता और भी  गह्वर हो रही है! जीवन- लक्ष्य में भटकाव है! सांसों की गतिशीलता जीवन लक्षण है, लक्ष्य नही! सृजेयता की आशाओं को  व्यर्थ न करो! तुम्हीं तो कृत्यांत हो  इस सृजन बिंदु के!

क्यूं हुआ मेरा जन्म!

क्यूं हुआ मेरा जन्म , क्या था मेरा अभिशाप, किस कर्म फल का यह प्रायश्चित , जिसे मैं घुट-घुट कर , मर-मर कर जी रही हूँ ?? घर -बाहर हर जगह , यह महा विभेद! 'नारी उत्थान ' अधिकारों की समानता , कितना मृदु -तीक्ष्ण व्यंग्य , नारी के द्वारा ही , नारी को अभिशापित करने की क्रूर प्रथा!! धन्य है वह (नारी) जिसे मार दिया गया, जन्म से पहले ही , जिसे उबार दिया गया ! रचा गया फिर एक नया सिद्धांत भ्रूण हत्या को , संवैधानिक पाप करार दिया गया ! वाह ऱी सभ्यता! तू और मैं दोनों में कितनी समानता है ? दोनों की हत्याएं हो रही हैं , और मूक होकर हम रो रही हैं , क्योंकि हमारा "जेंडर" एक ही तो है!

अय, अमरते !

अय, अमरते तू ! क्यों कर लुभाती है ? इन चिर श्रमित , नीरस प्राणों को झकझोर हिलाती है! मृत्यु के गह्वर रहस्य से, क्षण भर को ही भिग्य तो होने दे! अनंत के सास्वत लक्ष्य से, इस अत्न को , विज्ञ तो होने दे ! निर्वाण के अनसुलझे चिर रहस्य को क्यों अब और उलझाती है ? अय, अमरते तू ! क्यों कर लुभाती है ?

होना कत्ल-ए-आम है!

लोग यूँ ही अंगुलियाँ नही उठाते ; तेरे  चर्चों   में  मेरा भी नाम है! एक  तेरा ही मुजरिम रहा मैं, जमाना तो बेवजह बदनाम है! गुनाह खुद ही कर बैठे थे खुद से, ये तो फैला हुआ तेरा ही दाम है! कबूल है हर एक सजा भी अब, बचना क्या- होना कत्ल-ए-आम है!

अलफ़ाज़ अपने जख्म दिखाने लगे!

इस दौर में किसका करें ऐतबार; जब अपने ही आजमाने लगे! भरोसा तो गैरों का भी था बहुत; अब बेगाने हक जताने लगे! हर कोई तो है गम जदा यहाँ पर; कौन किसे दास्ताँ सुनाने लगे! लफ्जों को जो हम बयाँ करने चले; अलफ़ाज़ अपने जख्म दिखाने लगे! रूठ जाएगी एक दिन ये जिन्दगी, हिसाब सांसों का लगाने लगे!

परिवर्तन

चिड़िया के चूजे  जब चहचहाते  थे उनदिनों पेड़ पर; कोई गोरैया चुन लेती थी अपने हिस्से के चावल! और तिलोरियों की लड़ाईयां  देती थीं संकेत बारिश आने का! पुराना बरगद जो  हुआ करता था अनगिनत पक्षियों का बसेरा! अब चिह्न भी नहीं रह गये  अवशेष जो इनके होने का  प्रमाण दे सकें! हाँ इन पेड़ों की जगह लेली हैं कुछ सरकारी इमारतों ने ! जहाँ कभी-कभी भीड़ इकट्ठी होती हैं दाने-दाने की लड़ाईयों के लिए; जिन पर  सरकार ने पाबंदी लगा दी है  अब कोई दो दानों से अधिक नहीं खायेगा; और जिसको खाना होता है वो बन जाता है खुद सरकार!

तिमिर आज पूनम को पी गया !!

आह !ये कैसा  हृदयाघात ; चुभ रही न जाने  कौन  सी ये रात , मौन है काल कर रहा प्रत्याघात ! आज मृगांक भी  पूर्णिमा को  अमावस जी गया  तिमिर आज  पूनम को पी गया !! ऊषा पूर्व द्युति आछिन्न  नक्षत्र सी, हो रही  निमीलित यह किरण भी  आशा की !  सोंच कर परिणाम, समय  पूर्व आज; छिप कहीं आज  दिनकर भी गया!  तिमिर आज पूनम को पी गया !! आएगा वह प्रद्योतन हरेगा त्रान; करेगा शशांक को निष्कलंक वह अत्न! जाने कहाँ आज वह प्राची का वीर भी गया ! तिमिर आज पूनम को पी गया !!

प्रयाश्चित!

तुम्हारा वह लाल गुलाब; आज भी उसी किताब में रखा है, पर उसकी हर एक पांखुरी और अधर-पत्र; सूखकर जर्जर और क्षीर्ण हो गये हैं! तुम्हारे उस अप्रतिम उपहार को; क्षीर्ण होने से न बचा सका ; और तुम्हारे वो अव्यक्त उदगार, आज भी मेरे लिए उतने ही रहस्य-पूर्ण बने हैं! क्योंकि मूक समर्पण की भाषा मैं समझ न सका था; और उस भूल के प्रयाश्चित में मैं और तुम्हारा लाल गुलाब दोनों ही रंगहीन हो गये !

नया सवेरा !

आज सूरज फिर आया तुम्हारे दरवाजे पर; एक नया सवेरा लेकर! दूर कर निराशा की तमीशा; उपजाओ आशा! कैसी चिंता, बीते कल की; बीत गया वह क्षण; गुजर गया तम विवर ! आज सूरज फिर आया तुम्हारे दरवाजे पर; एक नया सवेरा   लेकर! हो चिन्तन; न हो चिंता जीवन की! तज दो निज व्यथा का व्योमोहन! धृ दो पग अब कर्म पथ पर! आज सूरज फिर आया तुम्हारे दरवाजे पर; एक नया सवेरा   लेकर! व्यर्थ भ्रम  उर में भर,  विचलित करते  तुम्हे शून्य- शिखर! होकर उर्जस्वित, प्रत्यक्ष का वरण कर  आज सूरज फिर आया तुम्हारे दरवाजे पर; एक नया सवेरा   लेकर!  

दफन रहने दो गुजरे कल को..........

दफन रहने दो गुजरे कल को; भरने में जख्म एक जमाना लगता है ! सुनते-सुनते एक मुद्दत हुयी, उसका नाम तो अब एक फसाना लगता है! अरसे बाद जो आईना देखा, खुद का ही चेहरा अब अनजाना लगता है! चंद सांसों का लिहाज़ भर है, मौत का आना भी एक बहाना लगता है!  दफन रहने दो गुजरे कल को; भरने में जख्म एक जमाना लगता है !

बहुत दिनों के बाद,

बहुत दिनों के बाद, आज मेरे भी आंगन में  धूप खिली है! फैला था कुहरा  अति घनघोर, था चतुर्दिश  शीत लहर का शोर , कुहासे के छटने पर , सूरज ने ऑंखें खोली है .... बहुत दिनों के बाद , आज मेरे भी आंगन में  धूप खिली है! शिशिर रातों के  हिम पाटों में  शीत से व्याकुल हो,  तप-तप टपकती  जल की बूंदों से  निशा में आकुल हो; हमसे आज करती  प्रकृति भी यूँ कुछ  ठिठोली है............ बहुत दिनों के बाद , आज मेरे भी आंगन में  धूप खिली है! देख कर जलद उड़ते गगन में आम्र कुंजों में मग्न हो, नाच उठे मयूरी ! सितारों जड़ी ओधनी  ओढ़ के धरा पर  आयी  हो शाम सिंदूरी ! मानो  शृंगारित   हो  नव वधू प्रिय मिलन को चली है! बहुत दिनों के बाद , आज मेरे भी आंगन में  धूप खिली है! पौधों पर नव कलियाँ  खिल-खिल कर झूम रही , सरसों की अमराई में तितलियाँ फूलों को चूम रही; मानो प्रकृति ने आज धरा पर  पीली चूनर डाली है! बहुत दिनों के बाद , आज मेरे भी आंगन में  धूप खिली है! नभ में गूँज रहा विहगों का कलरव,  खिला हुवा अम

अंत हीन यात्रा-२

हर वो रास्ता  जिस पर कदम बढ़ाता हूँ ; आगे ही वह  बढ़ जाता है ! सुबह से चलकर  सूरज शाम तक थक कर  क्षितिज के पार ओझल हो जाता है!! रात के साये में  खिसकते-खिसकते चाँद भी, यात्रा में असमर्थ हो जाता है!! पर मेरी आकांक्षा लक्ष्य-पूर्व विराम नही लेने देतीं! और मैं बस चलता ही जाता हूँ !

अर्थ हीन होता सृजेता का सृजन ,

१- श्रृंगार शून्य होती सुषमा  संशय हीन होता  यह जग , अन्तर्गगन में  न विचरण करते  विचार चेतन के विहग ; कल्पना हीन होता यह मन ! यदि होते न लोचन ! २- न दीनता प्रति  उर में उमड़ती दया, न जन्मती करुणा उठता न भाव कोई, क्लांत होता न अत्न, देख मानव की तृष्णा ! न विछिप्त होता अंतर्मन , यदि होते न लोचन ! ३- न कोई कहता , प्रतीक्षा में पथराई आँखें , न कोई दिवा स्वप्न देखता , न होता कोई,  जीवन में अपना - पराया , न किसी को दृष्टिहीन कहता ! भावना शून्य होते जड़-चेतन , यदि होते न लोचन ! ४-विटप सम  होता मानव जीवन  अर्थ हीन होता कर्म, उदरपूर्ति  हेतु होते व्यसन , पर न होता कोई मर्म! कहाँ होता चिन्तन - मनन , यदि होते न लोचन ! ५-देख पर सुख, न होती ईर्ष्या , न उपजता कोई विषाद, रंग - हीन , स्वप्न- हीन  होता जीवन , न होता आपस में  कोई विवाद! हर्ष-द्वेष रहित होता निश्छल मन , यदि होते न लोचन ! ६- न मानव करता, मानवता पर अत्याचार, पुष्प-प्रस्तर का मात्र ,  होता मृदुल-अश्मर प्रहार, दिवस निशा का बोध , कराता मा

अनंत: -"अतीत" के अंश

शून्य क्षितिज से लौट स्मृति की सुर लहरी, मस्तक में रह-रह कर है फिरती ! जीर्ण जर्जर इस पंजर को कर तरंगित , व्यथित अंतस में वेदना है भरती  !! स्मृति की चिर सुर लहरी में, उद्वेलित होता अन्तःस्थल ! जीवन पथ से श्रांत पंथ को; कर देती व्यथित विकल ! क्षणिक ही था वह मिलन, पर  जीवन तो है चिर महा विछ्लन! वेदना बेधती इस विह्वल को , है व्यथित अंश,-हेतु  पूर्ण मिलन !! अनंत से होकर त्यक्त अत्क, तृष्णाप्त  हो गया कृतिका के गुंठन में! कर विस्मृत उस परम को , होकर पथ भ्रमित अवगुंठन में !! है खोजता उस परम तत्व को, जिससे पूरित है सम्पूर्ण जगत! परम-पूर्ण का है तू भी पूरक, था  वही  जो, है आगत-विगत!! कर विस्मृत अनंत को तुने, जीवन पथ पर तम दिया प्रसार! व्यर्थ की व्यथा से आकुल हुआ, होकर भ्रमित कर जीवन निःसार! कृतिका का बंधन है क्लिष्ट पर, जीवन का लक्ष्य न कर विस्मृत ! यह तो भ्रमित करेगी कृत्या से, होकर दृढ, निज को कर स्मृत !! जीवन प्रहरण के प्रांगण में, कर्म ही चिर श्री दे पायेगा! होकर कर्म पथ से विचलित, लक्ष्य विहीन रह जायेगा!! 

अंत हीन यात्रा

घिसटते  हुए पैरों में पड़े छाले; और अंत हीन  ये उलझे हुए रास्ते! थकी हुयी जिन्दगी और बोझिल सांसें, नहीं थकती तो  जिजीविषा और न खत्म होने वाली  चिर आकांक्षा ! सभी गतिमान हैं  अनंत की ओर अनंत काल के लिए ! अंत हीन यात्रा पर !

शब्दों की भूख

पेट की भूख को  शब्द देने में मैं खुद को  असफल पाता हूँ ! एक पुरानी थाली, जो खाली है, सदियों से; आज भी  उसकी रिक्तता को शब्द देने में  मैं खुद को  असफल पाता हूँ ! भूख कभी नहीं मरती; मर जाता है  भूख से पीड़ित आदमी! और उसकी व्यथा को  व्यक्त करने की छटपटाहट में, जिन्दा रहते है शब्द  जिन्हें कोई नहीं मार सकता !

जब से पैदा होने लगे सिक्के!

पहले बोता था  गेहूं और  पैदा करता था गेहूं आदमी! जिससे पलता था यह आदमी !! भूल से  न जाने कैसे; बो गये कुछ  सिक्के एक दिन, फिर क्या था- गेहूं की जगह  जमीन  ने शुरू कर दिए पैदा करने सिक्के! अब नही उगती  गेहूं की वह फसल ! और भूखों मरने लगा  यह आदमी ! जब से  पैदा होने लगे सिक्के!

पुनर्निर्माण !

वो आखिरी चट्टान; जिस पर तुम खड़े हो, और तुमने जिस हिम्मत से हिमालय को चुनौती दी है; पर अब वो चट्टान भी अपने  जनक  से विरोध का साहस नहीं जुटा पा रही है! और! यह जल प्लावन भी  तुम्हें अब नव सृष्टि का  पुनर्निमाण नहीं करने देगा; क्योंकि तुम न तो मनु हो, और न ही कोई श्रृद्धा  तुम्हें सम्बल देने आएगी! हाँ! इड़ा अवश्य तुम्हारे साथ है, जो सृजन पथ पर , तुम्हारा मार्ग दर्शन  करेगी! पर क्या  पुनर्निर्माण  सम्भव कर सकोगे!!

अन्तर्गगन: किसे ढूंढते हैं, ये सूने नयन ?

अन्तर्गगन: किसे ढूंढते हैं, ये सूने नयन ? : किसे ढूंढते हैं, ये सूने नयन ? स्मृतियों में क्यों, हो रहे विह्वल , किस हेतु उन्मीलित, हैं ये अविरल / स्पंदन हीन हृदय , औ नीरद अयन किसे ढूं...

विभ्रम

स्वप्न लोक से आकर तुम; मेरी सुप्त तृषा जगा जाते हो! स्मृति से तुम हृद तंत्री के; आछिन्न तार बजा जाते हो!! कर प्रखर व्यतीत क्षणों से, सोती बेसुध पीड़ा को ! शून्य हृदय को  कर  स्वर प्लावित; कर प्रखर वेदन क्रीडा को ! जीवन संशय के विस्मय से; क्षण-क्षण होता व्योमोहित ! पथ पर पग देते ही स्मृति, कर देती अंतस को व्यथित ! द्युति आछिन्न हुए सब; नक्षत्र गण भी निबड़े तम में! नहीं प्रतिभास दीखता , है  अब जीवन के सरगम में! हर क्षण डसने को तैयार खड़ी, श्वास -श्वास पर काल व्याली! विवृत है तम का अवगुंठन यहाँ; ज्यों प्रलय काल की निशा काली! नहीं बजती अब जीवन में; सप्त स्वरों की राग लहरी ! कर्म कृपाण हुयी गति मंद, अनिश्चित वेदना सी ठहरी ! अतीत का उपालम्भ कैसा, त्यक्त कर व्यर्थ चिन्तन ! भ्रम से न बन अपभ्रंश तू; यह सब है प्रत्यक्ष मंथन ! व्यर्थ भ्रम है जीवन-मरण, कर तू निज पथ कर्म वरण! बना स्यन्दन यह मानव तन  हो पूर्ण लक्ष्य पथ संवरण !