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अनंत: -"अतीत" के अंश

शून्य क्षितिज से लौट स्मृति की सुर लहरी,
मस्तक में रह-रह कर है फिरती !
जीर्ण जर्जर इस पंजर को कर तरंगित ,
व्यथित अंतस में वेदना है भरती  !!

स्मृति की चिर सुर लहरी में,
उद्वेलित होता अन्तःस्थल !
जीवन पथ से श्रांत पंथ को;
कर देती व्यथित विकल !

क्षणिक ही था वह मिलन, पर 
जीवन तो है चिर महा विछ्लन!
वेदना बेधती इस विह्वल को ,
है व्यथित अंश,-हेतु  पूर्ण मिलन !!

अनंत से होकर त्यक्त अत्क,
तृष्णाप्त  हो गया कृतिका के गुंठन में!
कर विस्मृत उस परम को ,
होकर पथ भ्रमित अवगुंठन में !!

है खोजता उस परम तत्व को,
जिससे पूरित है सम्पूर्ण जगत!
परम-पूर्ण का है तू भी पूरक,
था  वही  जो, है आगत-विगत!!

कर विस्मृत अनंत को तुने,
जीवन पथ पर तम दिया प्रसार!
व्यर्थ की व्यथा से आकुल हुआ,
होकर भ्रमित कर जीवन निःसार!

कृतिका का बंधन है क्लिष्ट पर,
जीवन का लक्ष्य न कर विस्मृत !
यह तो भ्रमित करेगी कृत्या से,
होकर दृढ, निज को कर स्मृत !!

जीवन प्रहरण के प्रांगण में,
कर्म ही चिर श्री दे पायेगा!
होकर कर्म पथ से विचलित,
लक्ष्य विहीन रह जायेगा!! 

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