स्वप्न लोक से आकर तुम;
मेरी सुप्त तृषा जगा जाते हो!
स्मृति से तुम हृद तंत्री के;
आछिन्न तार बजा जाते हो!!
कर प्रखर व्यतीत क्षणों से,
सोती बेसुध पीड़ा को !
शून्य हृदय को कर स्वर प्लावित;
कर प्रखर वेदन क्रीडा को !
जीवन संशय के विस्मय से;
क्षण-क्षण होता व्योमोहित !
पथ पर पग देते ही स्मृति,
कर देती अंतस को व्यथित !
द्युति आछिन्न हुए सब;
नक्षत्र गण भी निबड़े तम में!
नहीं प्रतिभास दीखता ,
है अब जीवन के सरगम में!
हर क्षण डसने को तैयार खड़ी,
श्वास -श्वास पर काल व्याली!
विवृत है तम का अवगुंठन यहाँ;
ज्यों प्रलय काल की निशा काली!
नहीं बजती अब जीवन में;
सप्त स्वरों की राग लहरी !
कर्म कृपाण हुयी गति मंद,
अनिश्चित वेदना सी ठहरी !
अतीत का उपालम्भ कैसा,
त्यक्त कर व्यर्थ चिन्तन !
भ्रम से न बन अपभ्रंश तू;
यह सब है प्रत्यक्ष मंथन !
व्यर्थ भ्रम है जीवन-मरण,
कर तू निज पथ कर्म वरण!
बना स्यन्दन यह मानव तन
हो पूर्ण लक्ष्य पथ संवरण !
सच्ची बात कही सर!
जवाब देंहटाएंसादर
सुन्दर....
जवाब देंहटाएंअद्भुत शब्द संयोजन....
अनु