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फ़रवरी, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

उदासी उस उदास रात की

रात का हिसाब माँगने जब चाँद, आयेगा तुम्हारे पास ! सांसों की गर्म तपिस में झुलसी वो बिस्तर की सलवटें कैसे बयाँ कर पाएंगी गुजरी रात की वो दास्ताँ ! अपलक आँखों से इन्तजार में गुजार दी जो तुमने वो रात अपने चाँद के लिए !! तुमने तो पढ़ लिए थे, काम के सभी सूत्र अपनी आँखों के स्वप्न में ! टूट चुका था बदन मिलन की  कल्पना से, रह गयी थी शेष वेदना आछिन्न ह्रदय में ! आया जब चाँद खिड़की पर तुम्हारी वह भी कराह उठा, देख कर उदास रात को ! चला गया वापस प्रेयसी को उदास पाकर: डर था उसे कहीं देर से आने का हिसाब न देना पड़ जाय उसे  !!

जब हकीकत सामने आयेगी !

जिन्दगी खुद को कब तक आईने से बहलाएगी ! क्या हश्र होगा जब हकीकत सामने आयेगी ! जब-जब हालातों में होगा इम्तिहान तेरे सब्र का , राहों की मुश्किलें दास्ताँ-ए-कोशिश बताने आयेंगी ! गुजरती तो जा रही जिन्दगी भटकती राहों से , तेरी हसरतें हीं तेरे जज्बे को आजमाने आएँगी ! कब्रगाह तक पहुँचने से पहले तेरे जनाजे के , उस रोज़ कयामत सांसों का हिसाब लगाने आयेगी ! मयस्सर न होगा कतरा -ए- रहम तुझे उस रोज़ , मंजिल करीब होगी ,मौत तेरा साथ निभाने आयेगी ! जिन्दगी खुद को कब तक आईने से बहलाएगी !

जिन्दगी धुएँ की मानिंद उड़ती रही

जिन्दगी धुएँ की मानिंद उड़ती रही , कभी खुद पे, कभी मुझ पे हँसती रही; अरमानों के धागों से बुनी हुई चादर , वख्त की करवटों में तार-तार उधडती रही ! सुलझाने लगा जिन्दगी जब हालातों में, इस हुनर से रिश्तों में दरारें पडती   रही ! लहू के अश्कों से भरता रहा जख्मों को , वख्त कुरेदता रहा ,और दर्द बढती रही ! मिलना -बिछड़ना  तो जहाँ के लफ्ज़ भर हैं , यहाँ किश्मत खुद की लकीरें पढ़ती रही! मंदिर में खुदा मिला न मस्जिद में भगवान, जिन्दगी जहाँ में  खुद की तश्वीर ढूढती रही!  

ये दुआ मांगता हूँ!

नहीं मांगता शजर-ए- अमीरी या खुदा , मिलती रहे सबको रोटी ,ये दुआ मांगता हूँ! गैरों की खुशहाली से न हो जलन, दिल में बस सब्र -ए- अरमां मांगता हूँ !! निकले न लब से बद्दुआ किसी के खातिर , इरादे नेक और मुकम्मल इमां मांगता हूँ !! उजड़े न चैन - ओ- अमन किसी का और, तेरे ख्वाबों का खुशनुमा जहाँ मांगता हूँ !! बँट गयी है दुनिया मजहबों में बहुत, ऐ खुदा इंसानियत का एक कारवां मांगता हूँ !! नहीं होते इंसान बुरे , हालात बना देते हैं , ऐसे बुरे  हालातों का  न होना मांगता हूँ !!

ये शब्द नहीं, यथार्थ हैं वर्तमान का और प्रत्यक्ष भविष्य !

क्षुधाकुल बालक की कंठ अवरुद्द सिसकियाँ, रोटी की जद्दोजहद में टूटे हुए बदन का दर्द ! बंजर हुयी धरती की अन्न्दायी वह कोख ! क्या यही है मानव की महानतम सभ्यता का चरम विकास !! सूख गये बादल सूरज शीतल हो गया , चाँद की तपिश अब चुभने लगी बदन में ! नदी के चिह्न हैं मात्र अवशेष , मौन हो चली जलधारा !! हवा बंद है एक सिलेंडर में सांसें अब बिकने लगीं ! खरीदने को है बेचैन अतिगव मानव ; शायद भूल गया वह प्रारब्ध के नियमों को !! विकास की भूख ने निगल लिया है साधनों को;  अब प्रायश्चित ही  शेष है मिटाने को भूख,  एवं प्रतीक्षा  एक और सभ्यता के  पतन की !!

शहीदों की माँ !

गाँव के अंतिम छोर पर था एक टूटा हुआ माटी का घर ! जिसमे रहती थीं एक बूढी माँ ! आज उन्होंने छोड़ दिया वह घर और संसार ! जिसके लिए उन्होंने किये थे कुर्बान अपने चार जवान बेटे ! सुना है वो बेटे शहीद हुए थे देश की आन और सम्मान को बचाने में ! पर माँ हो गयी थी बेबस और लाचार; यूँ ही झूठा एक तमगा मिल गया था उसे जीने के लिए ! जो नहीं मिटा सकता था उसके पेट व जरूरतों की भूख और मांगो को ! घिसटते-घिसटते बिता दिए थे उन्होंने पूरे चालीस साल ! कोई नहीं पूछने आया उस माँ की विवशता का कारण और दिखाने समाधान का रास्ता ! क्यों किसी के सामने फैलाती अपने दीन हाँथ आखिर वह थीं तो शहीदों की माँ ! ( शत -शत नमन ऐसी ही अनगिनत माँओं के त्याग को और उनकी अपार सहनशक्ति को !)

उठो , मंजिल तुम्हारी है!

सूरज की किरणें देती सतत संदेश, तम का आवरण हटा कर प्रकाशित करो निज के अंतस को ! वायु का प्रवाह जैसे देता जीवन को नव संचेतना , भर दो जग में अप्रतिम संचार !! नदी की धारा सिखाती हमें , निरंतर गति ही है जीवन का मूल और प्रगति का मन्त्र !! चाँद की शीतलता भरती हृदय में  भाव , बनो तुम विनम्र कितने ही मिलें तीक्ष्ण और कठोर क्षण !! डिगे न कभी तुम्हारा धैर्य और टूटे न हिम्मत की डोर , सहन शक्ति का संदेश देता यह धरती का धैर्य !! जब सभी शक्तियाँ और करने की क्षमता, है तुम्हारे पास, तो चल पड़ो अपनी मंजिल की ओर! है जो आतुर फैलाये बाहें तुम्हारे स्वागत के लिए !

न दो कुंती की पीड़ा !

कितनी ही कुन्तियाँ देती हैं छोड़; कर्णों को जीवन के अस्तित्त्व से , करने को संघर्ष ! कर्ण के  जन्म का है  अबोध अपराध ; या कुंती की  कोई अक्षम्य भूल! समाज के  निष्ठुर नियम  और न जाने कितने ही  महाभारतों को देंगें जन्म ! क्या समाज  नहीं कर सकता ; स्वयं की त्रुटि का  प्रायश्चित व प्रतिकार ! अब बचा लो  कुंती को  अभिशापित  होने से, और  किसी माँ को   न दो कुंती की पीड़ा !

जीवन त्राण

नीरस प्राण लिए पागल  मैं कहता हूँ; ठहर तो सही  पल दो पल के लिए ! कितना चला  चलकर भी  न थका अब , है व्याकुल तू , किस नभ - थल के लिए! उलझ रहा  राग-द्वेष के  मिथ्या रस में ; भ्रमित भटकता  तृष्णा में जल के लिए ! अश्रांत जीवन  व्योमोहित मन , लिए व्यर्थ व्यथा ; व्यथित है तू  अनिश्चित कल के लिए ! खोकर प्राप्य खोजता अज्ञेय ; सोंच तनिक जो क्यों चिंतित है  अदृश्य फल के लिए ! नीरस प्राण लिए पागल मैं कहता हूँ; ठहर तो सही पल दो पल के लिए !

जीवन किस के लिए !

नदी की  धारा, जो अनवरत  गतिज है  अनंत सागर में  लीन होने के लिए ! मिट जायेगा  अस्तित्त्व उसका  पर साकार हो जायेगी  और विस्तृत होने के लिए ! जल की वह बूँद  जो आतुर है  धरा की प्यास को  बुझाने  के लिए ! ऐसे जीवन जो  मिटा देते हैं स्वयं के  अस्तित्व को  किसी और के  अस्तित्व के लिए ! पर यह मानव जीवन  हो गया स्वार्थी  मिटा रहा है अन्य को स्वयं के लिए ! अरे सोंच ! क्यों हुआ तेरा  प्रादुर्भाव और  यह जीवन किस के लिए ! 

पूर्णिमा को अमावस जी गया

आह !ये कैसा  हृदयाघात ; चुभ रही न जाने  कौन  सी ये रात , मौन है काल कर रहा प्रत्याघात ! आज मृगांक भी  पूर्णिमा को  अमावस जी गया  तिमिर आज  पूनम को पी गया !! ऊषा पूर्व द्युति आछिन्न  नक्षत्र सी, हो रही  निमीलित यह किरण भी  आशा की !  सोंच कर परिणाम, समय  पूर्व आज; छिप कहीं आज  दिनकर भी गया!  तिमिर आज पूनम को पी गया !! आएगा वह प्रद्योतन हरेगा त्रान; करेगा शशांक को निष्कलंक वह अत्न! जाने कहाँ आज वह प्राची का वीर भी गया ! तिमिर आज पूनम को पी गया !!

लक्ष्य निर्वाण !

चलते-चलते यदि  रुक जाये पथिक  तो लक्ष्य हो जाता  क्यों और कठिन ? पर गति ही तो है  जो चेतन को देती  नया अस्तित्त्व , और बनाती जीवंत ! लक्ष्य पूर्व ठहराव  करता व्योमोहित  और अंतस को  कर देता भ्रमित ! बाधाएं और विराम , नहीं है लक्ष्य के  कोई तुष्टि हेतु विकल्प ! और परिणाम ! चेतना ही चेतन को  देगी इसका पूर्ण  और शाश्वत लक्ष्य  व अंतिम विराम ! हे अत्न होकर  व्यथित और श्रांत  न कर जीवन  व्यर्थ और क्लांत ! तज न यह पथ होकर कर्मच्युत व्यर्थ न कर लक्ष्य निर्वाण !