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अप्रैल, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

एक सूखी नदी

नदी जो कभी भरी थी यौवन से, सदियों की सभ्यताएं करती थीं अठखेलियाँ  इसकी उर्मियों में; अब  सूख चुकी है पूरी तरह अवशेषित और  लुप्त हो गयी है! हाँ, इसकी तलहटी में बसे  गाँवों को  बाढ़ का खतरा  नहीं है अब; " कर्मांशा"  हार चुकी है! लेकिन  इसके दोनों ओर हरे जंगल और वन्य जीव  भी लुप्त हो गए हैं; समय के साथ  अब किसी  पूर्णिमा या अमावस पर नहीं लगता  जमावड़ा  दूर-दूर  से  आये हुए  जन सैलाबों का; नदी के सूखने पर  नष्ट हो जाती हैं  सदियों की संस्कृति और सूख जाया करती हैं  सभ्यताएं!

गर तू खुद को नींद से जगा दे !

कतरा- कतरा जिन्दगी जीने से बेहतर है  एक पल मुस्कराते हुए  जाँ लुटा दे ! मिल जायेगी ये शोहरत भी धूल में, बेहतर है खुद को वतन पे मिटा दे !  शर्म से झुकना सर का, जिल्लत है, क्यों न मादरे-वतन पे कटा दे ! सभी राहों से पाकीज़ा है कुर्बानियों की, अपना भी कदम एक बढ़ा दे ! बन जाएगी तेरी हस्ती भी यहाँ, गर तू खुद को नींद से जगा दे ! कतरा- कतरा जिन्दगी जीने से बेहतर है  एक पल मुस्कराते हुए  जाँ लुटा दे !

अशआर मे अश्क-ए-गम इजाद हुए हैं !

क्योँ ना सजा लूँ ग़म ए हस्ती अब्तर  , जो अशआर मे अश्क-ए-गम इजाद हुए हैं ! रहबर ने गर्दिश-ए- खाकसार बना दिया, जैसे तूफां के झोकों से दरख्त बर्बाद हुए है ! हर वक्त जो भी वख्त में मिला वो सब, गम-ए- फुरकत में मेरे ही इन्दाद हुए हैं ! चश्म-ए-दीदार की जादूगिरी को क्या कहें, शेख और सूफी भी न इनसे आजाद हुए है ! उजड़े ही हैं चमन यहाँ इश्क-ए-राह पर, कहाँ - कब घरौंदें घास के आबाद हुए हैं ! क्योँ ना सजा लूँ ग़म ए हस्ती अब्तर , जो अशआर मे अश्क-ए-गम इजाद हुए हैं !

क्रंदन !

आह; निकल पड़े, वेदना के स्वर  देख मानव का पतन ! मानव की यह निष्ठुरता, लुप्त प्राय सहिष्णुता; पाषाण भी करता रुदन ! पर पीड़ा पर  परिहास, निज सूत का जननी पर त्रास; धनार्जन हेतु निर्लज्ज प्रयास; कर रही मानवता क्रंदन ! आह; निकल पड़े, वेदना के स्वर  देख मानव का पतन !

! अंतिम लक्ष्य !

लक्ष्य विहीन  किस पथ पर क्लांत ! प्रबाध है तू गतिमान ? किस हेतु कर रहा अन्तस् श्रांत; हो प्रमिलित  व्यर्थ कर रहा श्राम! ओ पथिक! पथ से होकर भ्रांत; तंद्रित हो, रह गया अज्ञान ! भूल गया तू, क्यों बना है कृत्यांत! व्यर्थ न कर क्षण  है लक्ष्य तेरा निर्वाण ! -- 

राही अनजान राहों का !

राहें बता रहीं हैं, कोई गुजरा है  बड़ी शिद्दत से  मंजिल की जुस्तजू में ! कतरे-कतरे की  खारी नमी , आज भी उसकी इन्तजा की हर वो  दास्ताँ बयाँ कर रही है ! सरगोशियाँ काफूर  भले हो गईं हों, गुजरे तूफाँ की  ताशीर अब भी सन्नाटों में सिहरन  बढ़ा रही है ! मंजिल नही वो  एक जंग थी, मुकद्दर से  जिन्दगी की जिसकी आरजू में  धडकने बिकती रहीं  और सांसें चलती रहीं !