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जून, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

अपवृत्त !

अंतस को तापित करती है, यह विदग्ध ज्वाला ! स्निग्ध हो उठे ह्रदय. दे दो वह अमिय मय हाला !!  ये है जीवन की तृष्णा, जो  करती  व्योमोहित  पान्थ को ! हो निर्लिप्त कर लक्ष्य संधान,  हेतु व्यथित न कृत्यांत हो !! कुटिल काल चक्र के काल-व्याल से, क्या कुछ अच्क्षुण रह पाया है ! श्रांत जीवन की आहात सांसों से , कौन निर्वाण पथ पूर्ण कर पाया है !

दौर-ए- मुफलिसी !

मुफलिसी का दौर कुछ इस कदर चला, आदमी न जाने कौन-कौन सी डगर चला !! मुसीबतों का जो फिर सिलसिला चला, जिन्दगी में रंज-ओ-गम का जलजला चला ! फिर भी कर वो पूरा सफर चला ............. आदमी न जाने कौन-कौन सी डगर चला !! कदम-कदम पर सबर का इम्तिहान चला, मुकद्दर के हांथों मजबूर हो  इंसान चला !! भटकते-भटके वो मगर चला .............! आदमी न जाने कौन-कौन सी डगर चला !! जहाँ में जिन्दगी को बिखेरता चला , अपनी ही उलझनों को समेटता चला ! करके वीरां अपने  दीवार-ओ-दर चला......! आदमी न जाने कौन-कौन सी डगर चला !!               

बचपन !

"पुराने रास्ते, पुरानी गलियाँ ! "

सुबह उठता हूँ तो सोंचता हूँ! आज नए रास्तों पे चलूँगा, अपनी मंजिल को मैं पा लूँगा ! निकलते ही बाहर पुरानी गलियाँ भर लेती हैं आगोश में, चल पड़ता हूँ फिर  उन्हीं पुराने रास्तों पर ! मेरे कदम खुद ही,  कर देतें हैं रुख, उन्हीं चिर-परिचित  रास्तों की तरफ! फिर भटक जाता हूँ, अपनी एक नई मंजिल के  रास्तों से ! ये भटकाव और परिचय की आदत, दोनों ही मुझे, मेरी मंजिल से वंचित किये हैं ! न जाने वह सुबह कब होगी, जब मैं चल पडूंगा, अपनी उस मंजिल की ओर! और पा लूँगा अपनी उस वंचिता मंजिल को !!  

रास्ते और मोड़ !

आज इत्तिफाक से मिल गये, हम उसी मोड़ पर ! खायीं थीं कसमे न मिलेंगे, अब किसी मोड़ पर !! फिर से दिल पुकार उठा, शिकवे-गिले होने लगे ! एक-दूजे के जख्मों को, चरों नयन भिगोने लगे !! थी शिकायत किस बात पर, चले गये छोड़ कर..........! आज इत्तिफाक से मिल गये, हम उसी मोड़ पर ! न वादों का कोई गिला था, न जंजीरें थीं कसमों की ! रूहों के मिलन में कहाँ थी, रुकावटें कोई जिस्मों की !! फिर भी रास्ते बदल लिए  खुद  के दिल तोड़ कर..........! आज इत्तिफाक से मिल गये, हम उसी मोड़ पर! खायीं थीं कसमे न मिलेंगे, अब किसी मोड़ पर !!

सीं दो मेरे होठो को,

सीं दो मेरे होठो को, अब और गीत गा न पाउँगा ! तन्हा-तन्हा रातें हैं, बीते कल की बातें है, तेरी याद मैं भुला न पाउँगा ! कहाँ गयीं वो कसमें , कहाँ गये  वादे रस्में , चैन दिल को दिला न पाउँगा ! मेरे जीवन की तुम सांसें, तुमसे जुडी  हैं  मेरी आशें, तुझ बिन खुद को जिला  न  पाउँगा !

आदमी !

घर की पुरानी दीवारों सा, अब ढहने लगा है आदमी ! बहुत ढो चुका रिश्तों का बोझ, अब दबने लगा है आदमी ! जिन्दगी के हादसों में टूटकर  बिखरने लगा है आदमी ! अपनों में रहकर भी अजनबी  सा   लगने लगा है आदमी ! घर की पुरानी दीवारों सा, अब ढहने लगा है आदमी !

ख़ामोशी!

दिल रो उठे फिर से, न छेड़ो ऐसा साज कोई! किसी तमन्ना पे तुझको, हो न जाय ऐतराज कोई ! आज भी मोहब्बत को यूँ ही रहने दो पाकीज़ा ! बेहतर है ख़ामोशी लबों की, बयाँ न हो जाय राज कोई !

वजूद : मेरा ये तुम्हारा !

मेरे ही वजूद में  तुम  समा जातेहो सवजूद ! फिर भी अखरता है  तुम्हें ये मेरा वजूद ! जब-जब तुम्हे हुयी  मेरी जरूरत, मिन्नते की गिड़-गिड़ाये और  न जाने कितने सपने दिखाए, फिर अपना वजूद दिखाने के लिए  तिरष्कृत किया और मेरे ही अस्तित्व को  मिटाने का प्रयास करते रहे ! हे पुरुष! धन्य है ,  तुम्हारे वजूद की आकांक्षा और विडम्बना !

निशा का अवसान !!

व्यर्थ है ज्योतिपुन्जों को प्रज्ज्वलित करना ! पी कर अमृत चिर हो गयी ये तमिस की निशा ! सभी मनीषी छिप  गये कहीं  उस अँधेरे  धूमिल के कुंएं में ! अब तो हर गली   में मिल जाते हैं नए-नए अरस्तू, पर वे विचारों से ही अब रह गये हैं कुरूप! लेकिन अब कैसे भी करो, इस युग को चाहिए निशा का अवसान !!

नेह निमन्त्रण !

रुनझुन करती पायलिया  शाम ढले तुम आजाओ ! चौंक उठती हैं ये  साँसें, तेरे आने की आहट पाकर ! नाम से ही तेरे चंदा भी  छुप जाता अम्बर में  जाकर! अंधियारे जीवन में तुम  आकर उजाला कर जाओ!   रुनझुन करती पायलिया  शाम ढले तुम आजाओ !

जिन्दगी तपती रेत है, तुम नदिया की शीतल धारा !

जिन्दगी तपती रेत है, तुम नदिया की शीतल धारा ! रात चांदनी थी चुभती, अब चंदा भी लगता है प्यारा ! जिन्दगी तपती रेत है, तुम नदिया की शीतल धारा ! तुम  आये  मेरे आंगन में, जैसे सिमट आया हो जग सारा ! जिन्दगी तपती रेत है, तुम नदिया की शीतल धारा ! तोड़ के बंधन न जाओ, सिवा तुम्हारे कौन हमारा ! जिन्दगी तपती रेत है, तुम नदिया की शीतल धारा ! मिलना तो सपना ही था, बिखरी सांसों का हो सहारा ! जिन्दगी तपती रेत है, तुम नदिया की शीतल धारा !

मुझे वह मूल्य चाहिए!

मुझे वह मूल्य चाहिए! जो मैंने चुकाया है, तुम्हारे ज्ञान प्राप्ति हेतु, हे! अमिताभ; मुझे वह मूल्य चाहिए! क्या पर्याप्त नहीं थे वो चौदह वर्ष! कि पुनः त्याग दिया सपुत्र! तुम तो मर्यादा पुरुष थे हे पुरुषोत्तम ! मुझे वह मूल्य चाहिए! और हे जगपालक ! मेरा पतिव्रता होना भी बन गया अभिशाप! और देव कल्याण हेतु; भंग कर दिए स्व निर्मित नियम ! हे जगतपति ! मुझे वह मूल्य चाहिए! पर सोंच कर परिणाम; दे रही हूँ क्षमा दान, क्योंकि मेरा त्याग न हो जाय कलंकित और मूल्यहीन! रहने दो इसे अमूल्य; नहीं!  वह मूल्य चाहिए!

नदी की प्यास!

कौन समझता है, नदी की तपन को ! रही तरसती  बूँद-बूँद वह  उम्र भर! साक्षी बनती रही, हर एक प्यास की तृप्ति में वह ! पी न सकी कभी, एक घूँट भर ! ढोती रही अधूरी प्यास, मन में लिए हर क्षण! रही भटकती वह, गाँव शहर  पर्वत सागर !

दास्ताँ -ए- दरम्यां !

था वक्त का तकाजा जो, हम बयाँ वो दास्ताँ न कर सके ! दो कदम चले साथ मगर, फिर तय वो रास्ता न कर सके! तंग-ए-हाल गुजरे वो दिन, उनसे कभी वास्ता न कर सके ! दर्द-ए-जख्म हैं साथ जिन्हें, अब तक आहिस्ता न कर सके! उजड़ा जो चमन एक बार, उसे हम गुलिश्तां न कर सके! था वक्त का तकाजा जो, हम बयाँ वो दास्ताँ न कर सके !

पराकाष्ठा : प्रेम की !

तुमने कभी पूंछा नहीं, मैं अपनी क्या बताता? शायद सुनना उचित न समझा होगा! वह प्रेम ही था जो तुमने, कुछ पल मेरे साथ बिताये थे! पर यह वर्तमान है उस अतीत के  प्रेम का भविष्य ! जिसे एक आत्मा, पृथक -पृथक  शरीरों में जी रही है, एकांकी जीवन! परन्तु वह प्रेम! अब भी है उसी तरह पवित्र; वह मिलन दो शरीरों का नहीं ; एक आत्मा का था, जो अब  दो शरीओं में जी रही है  एक सा अधूरा, एकांकी जीवन !

ओ मेरे उर्जस्वित प्राण !

ओ मेरे  उर्जस्वित प्राण ! कब हरोगे  इस जीवन का त्राण! नित-नित  तृषा, क्षुधा और एषणा, करते   उत्पन्न  व्यवधान ! अब तो ऊषा  कर दो प्रसारित, हो जाय जीवन  पूर्ण अभिसरित! कर दो इस तमीशा  का अवसान ! अतृप्त अधीर  कर रहा करुण पुकार ! विजयी कर दो यह  जीवन की हार! व्यर्थ न करो ये आह्वान ! ओ मेरे  उर्जस्वित प्राण ! कब हरोगे  इस जीवन का त्राण!