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दिसंबर, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

अभिलाषा !

काम आऊं दूसरों के, दर्द बांटूं मैं उनके, मानव का कल्याण करूं , मेरी यह अभिलाषा है ! कभी न बुरा सोंचूं मैं, किसी का बुरा न करूं , जीवन यथार्थ करूँ मैं, मेरी यह अभिलाषा है !  मानवता का त्राण हरूं, नव युग का विश्वास बनूँ, पर हित का प्रयास करूं , मेरी यह अभिलाषा है ! किसी का मन न दुखे किसी को दर्द न पहुंचे मैं कर पाऊँ  कुछ ऐसा मेरी यह अभिलाषा है !  भूख मिटे जो उदर की खाए न ठोकर दर-दर की, मिलजाय सबको ये सब , मेरी यह अभिलाषा है !  युद्ध लड़ना तो व्यर्थ है प्रेम से जीते तो अर्थ है , भूलें सब भेद-भाव अब , मेरी यह अभिलाषा है ! 

असत्य, अस्तित्त्व सत्य का

  असत्य ,  जिसने बदला इतिहास , जिसके न होने पर होता है   सत्य का परिहास ! असत्य , न रखते हुए अस्तित्त्व , करता सत्य को साकार ; सत्य का जब हुआ उपहास , असत्य से ही मिला प्रभास ! किचित असत्य नहीं   होता   यथार्थ !   परन्तु , सत्य के महत्त्व का   आधार है यही   असत्य , हम अब भी सत्य औ   असत्य    के महत्त्व के   मध्य , हैं   विभ्रमित और विस्मित ! इस पार है   असत्य  , उस पार वह प्रत्यक्ष , सत्य !!

व्यथा !

दोस्तों मेरे हालत और गम न पूँछो; कैसा है हाल अब न ये सनम पूँछो! बारूद से जोड़ा है इमारत का हर पत्थर, बैठा हूँ किस ऐटम पे ,ये  बम न पूँछो!! सिसकियाँ हैं जो दिल में ही सिसक रहीं; सब पूँछो मगर दास्ताँ -ए- सितम न पूँछो! दहल उठेगी ये दुनिया तुम्हारी, यारों! चुप रहो, खुद के दिए हुए जख्म न पूँछो! मेरे अपनों ने किया है जो ए हश्र आज, कैसे हुआ वीरान मेरा ये चमन न पूँछो!! कहते हैं लोग मुझे, ये मेरा देश है ,अरे! होता है क्या, लोगों से ये "वतन" न पूँछो

विनम्र निवेदन !

                                                                  आप सभी भारतीयों व् भारत से प्रेम करने वालों से मुझे एक जानकारी चाहिए कितने लोग सम्पूर्ण विश्व में हिंदी नव वर्ष का पेव मानते हैं? या लोगों को शुभकामनायें प्रेषित करते हैं ?शायद आप विश्व की बात छोड़ दें कितने भारतीय हिंदी नव वर्ष के विषय में जानते हैं !                        मैं किसी संस्कृति विशेष का विरोध  नहीं करता ,वरन पक्षधर भी हूँ , सभी को अपनी संस्कृति पर गर्व होना चाहिए और दूसरों  की संस्कृति के साथ स्वयं की संस्कृति का भी ध्यान रखा जाय! जब तक हम स्वयं अपनी संस्कृति का सम्मान नहीं करेंगे तब तक दूसरों से क्या आपेक्षा की जा सकती है                   आईये हम सब मिलकर संकल्प लें की हम स्वयं की संस्कृति की समृद्धि व् विकास में यथा शक्ति प्रयास व् सहयोग  करेंगे!                     देश, भाषा व् संस्कृति का अपमान सहना जीते जी मृत्यु के समान है, जरा सोंचें यदि  कोई आपके जन्मदाता, पालनकर्ता का अपमान करे तो क्या सहनीय होगा!शायद नही बल्कि उसके प्रति शत्रुभाव जागृत हो उठेगा !                         लेकिन आज शाय

प्रलय और सृजन

एक नीड़ उजड़ा फिर से, झंझा के भीषण प्रभंजन में,  प्रलय की परिभाषा पुनह दोहराई गयी. एक संकीर्ण सभ्यता में जीवन मृत्यु से लड़ा! विजय फिर से छीन कर लाई गयी ; फिर-फिर बवंडर उठे, प्रभंजन के प्रवाह में सहस्रों नीड़ उजड़ गये, सभ्यताएं खड़ी की गईं; सृजन की नीवं डालकर, रचना गढ़ी गयी कितनी बार उजड़ेंगे, इस वीभत्स विध्वंस से ; हम बार-बार लड़ेंगे , प्रलय के चक्रवात चलते रहेंगें हर बार वही लड़ाई लड़ी गयी

जरा सोंचें !

आज कल लोग अपना काम केवल बातें बना देने से मतलब तक रखते है पर यथार्थ की गहराई में कोई नही जाना चाहता , सभी महान बनाना चाहते हैं पर किसी वस्तु का समर्पण करना हो तो उन्हें अपना पेट दिखाई देने लगता है कोई फेसबुक पर अपनी भडास निकालता हिया तो कोई  समाचरपत्र में लम्बा चौड़ा लेख लिख कर , पर कोई भी देश की व् देश के नागरिक और उसकी संस्कृति की  परवाह नही करता ,यह सब केवल दिखावे की बातें है. फालतू की बातें करनी बंद करें और यदि वास्तव  में  कुछ करना कहते हैं तो सबसे पहले खुद को भ्रष्टाचार से मुक्त करें और खुद अपने देश और संस्कृति का  सम्मान करना प्रारम्भ करें !  इस बात पर अवश्य विचार करें की हम अपनी संतानों को शिक्षा और शिष्टता सिखाना चाहते हैं पर जब बात  व्यक्तिगत होती है तो सारे सिद्धांत किनारे कर देते है / काश !हम सब की सोंच में सुधार हो जाय और खुद को  बदलने लगें तो परिवार ,समूह और देश भी बदल  सकता है !  हर एक को इस पावन कार्य के लिए आगे आना चाहिए पर सबसे पहले अपनी सोंच को सर्व  कल्याण कारी बनाना होगा तभी हम अपना और देश व् समाज का भला कर सकते हैं ! मीडिया भी अ

पतिता

जिश्म को बेंच  कर, वह पालती उदर; पतिता कहाती वह, पर क्या वह पतिता ही है? क्यों,कैसे पतित हुयी, सहयोग तुम्हारा भी तो है! बनाने को पतिता, तुमने ही विवश किया; फिर उसको यह नाम दिया , चंद चंडी के टुकड़े, बनाते मिटाते  उसके अस्तित्व को  तुम्हारी भूख में  वह सेंकती रोटियां; भूख मिटाने को वह लुटाती नारीत्व   नारी बचाने को/ वासना भरी आँखें ही  हर तरफ दिखीं, घर - परिवार और समाज  सब बहसी लगें कहाँ जाय  किस-किस से बचे हर तरफ दरिंदगी दिखे! पर करती जो समाज को पतित; क्या वो पतिता ही कहलाती हैं? आज भी लज्जित होता  समाज उनसे, फिरभी सभ्यता की भीड़ में  वो सभी ही  कही जाती हैं!!

तपिश

कितनी सुर्ख  हो रही धूप, शीतल हो चुका;  अब सूरज सारी उसकी गर्मी  समा गयी , इस पुरानी  सर्द धूप में!  जब घुटन ने  घोंट दिया दम   का ही गला, तो घोंटने को दम  घुटन  कहाँ जाय ! लाल आग को  पीकर चल पड़ी , जाड़े की रातें; लीलने उस जाड़े को जिसके आते ही जाग पड़तीं  थीं, वो सर्द रातें!!

हम क्या हैं ?

अजीब दास्ताँ है, इस अजीब दुनिया के  अजीब लोगो की ; कुछ के पास  वस्त्र नहीं  और कुछ, वस्त्रों से  वास्ता ही नही रखना चाहते, शायद  ये किसी का शौक  और किसी की  मजबूरी होती है, ठीक  इसी तरह  कोई भूख  से तो कोई  भोजन से  वंचित रहता है  और  जिनके पास  सीमित साधन और आवश्यकताएं हैं, वो इन अजीब लोगों के शौक और मजबूरी पर  बेचैन हैं/ अब विचार करना है  हम और आप  क्या हैं ?

चिर प्रश्न

जीवन , एक वह सत्य है ; जिसे जी कर भी न  जाना जा सका  और  मृत्यु पश्चात  तो है  चिर रहस्य ! पर  अभी भी युग पुरुष  कर रहे है प्रयास , जानने को जीवन की सार्थकता , क्या  जन्म और मृत्यु , मात्र भ्रम हैं  या किसी सृजेता का  कल्पनामयी  स्वप्न ! प्रत्येक जीवन इसी उहापोह में  बीत जाता है , और  चिर प्रश्न  प्रश्न  ही बने रहते है!

जीवन

यह लघु जीवन कितना विशाल!                           पग-पग पर मिलते चौराहे,                           हर पथ पर मन जाना चाहे.                           है जिसको यह जग ठुकराए,                           भ्रमित पथिक किस पथ  जाए/ खाकर ठोकर हुआ बेहाल ! यह लघु जीवन कितना विशाल!                                               बनते-मिटते सपने मन के;                                               हंसते-रोते पल जीवन के,                                               कितनी पथरीली ये राहें;                                               स्वागत को फैलाये बाँहें :               हर पल उलझता माया जाल'                यह लघु जीवन कितना विशाल!                              सुलझे जितना उलझे जीवन,                              हर पल होता है घायल तन;                              प्रतिक्षण होता विक्षिप्प्त अंतर्मन;                               होता रहता  मात्र हृदय वेदन; कितना निठुर क्रूर काल व्याल, यह लघु जीवन कितना विशाल!

तुम कहाँ हो ?

प्रियवर तुम कहाँ हो?   तुम कहाँ हो?  मेरी क्षति के किनारे, मेरे जीवन के शेयर; तन मन मेरे,    तुम कहाँ हो?  प्रियवर तुम कहाँ हो?   तुम कहाँ हो?  मन के नूतन अभिनन्दन ! सुंदर जीवन के नवनंदन, प्राण धन मेरे,  तुम कहाँ हो?  प्रियवर तुम कहाँ हो?   तुम कहाँ हो?  जीवन के नूतन अभिराम, मन मंदिर के प्रिय घनश्याम, प्रेम बंधन मेरे   तुम कहाँ हो?  प्रियवर तुम कहाँ हो?   तुम कहाँ हो?  ढूढ़ते जिसे ये सूने नयन, पुकारे जिसे ये प्यासा मन; समर्पण मेरे,  तुम कहाँ हो?  प्रियवर तुम कहाँ हो?   तुम कहाँ हो? 

भिक्षुक

लड़खड़ाते   कदमों से, लिपटा हुआ चिथड़ों से, दुर्बल तन, शिथिल मन; लिए हाँथ में भिक्षा का प्याला ! वह देखो भिक्षुक सभय, पथ पर चला आ रहा है/ क्षुधा सालती उदर को, भटक रहा वह दर-दर को, सभय समाज का वह बिम्ब; जिसमें उसने जीवन ढाला, खोकर मान-अभिमान, पथ पर चला आ रहा है/ हर प्राणी लगता दानी , पर कौन सुने उसकी कहानी, तिरिष्कार व घृणा से, जिसने  है उदर को पला ; घुट-घुट कर जीता जीवन, पथ पर चला जा  रहा है/ हाँथ पसारे, दाँत दिखाए, राम रहीम की याद दिलाये; मन को देता  ढा ढस; मुख पर डाले ताला, लिए  निकम्मा का कलंक, पथ पर चला जा  रहा है/

अतीत की स्मृति लहरी

अतीत की स्मृति लहरी , क्यों कर तरंगित होती है? निशीथ की इस बेला में, क्यों व्यथा व्यथित बोती है/ पान्थ है जब पथ पर गतिज, फिर क्यों यह बाधित होता है? व्यतीत काल के कलरव से, क्यों यह अंतस व्यथित होता है?  वेदना की व्यथा से होकर व्यथित ,  लक्ष्य पथ से क्यों हो रहा विचलित/  क्या कर्म पथ था त्रुटिपूर्ण जो अब  निर्वाण पथ से कर रहा विछ्लित/ क्या कुछ शेष रहा विशेष जो,  करता तनमन को तपित,  इस अटवि में आकर भी तू  भ्रमित, तृषित सा है शापित जीवन के निर्जन कानन में ,  करता था नित नाव नंदन /  श्रृद्धा पूर्ण था जीवन समर्पण ,  भावना पूर्ण था देव वंदन / था शांत स्थिर तटस्थ पर,  करता था नूतन अभिनन्दन /  सुख-दुःख ,राग द्वेष से हीन,  मधुकामना से निर्लिप्त मन / निष्पादित अश्रांत जीवन ,  निर्वेद के रह्स्योंमीलानोद्यत /  करता था मैं जीवन तपस्कर,  लक्ष्य संधान हेतु था उद्यत / जीवन लक्ष्य था मात्र निर्वाण ,  कर्तव्य पथ पर था प्रबाध/  गतिमान था महाकाल का चक्र ,  आशा पूर्ण था जीवन निर्बाध / जीवन की इस निशीथ बेला में ,