जिश्म को बेंच कर,
वह पालती उदर;
पतिता कहाती वह,
पर क्या वह पतिता ही है?
क्यों,कैसे पतित हुयी,
सहयोग तुम्हारा भी तो है!
बनाने को पतिता,
तुमने ही विवश किया;
फिर उसको यह नाम दिया ,
चंद चंडी के टुकड़े,
बनाते मिटाते
उसके अस्तित्व को
तुम्हारी भूख में
वह सेंकती रोटियां;
भूख मिटाने को
वह लुटाती नारीत्व
नारी बचाने को/
वासना भरी आँखें ही
हर तरफ दिखीं,
घर - परिवार
और समाज
सब बहसी लगें
कहाँ जाय
किस-किस से बचे
हर तरफ दरिंदगी दिखे!
पर करती जो
समाज को पतित;
क्या वो पतिता ही
कहलाती हैं?
आज भी लज्जित होता
समाज उनसे,
फिरभी सभ्यता की भीड़ में
वो सभी ही
कही जाती हैं!!
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