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अक्तूबर, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

"मुझे अब वे पराया कहने लगे"

बेरुखी इस कदर बढ़ गयी हमसे , मुझे अब वे पराया कहने लगे  ! बाद मुद्दत के ज़ुबां पे आयी, जो ये शिकस्त की कहानी , फासले जो दरमयां करने लगे......... बेरुखी इस कदर बढ़ गयी हमसे , मुझे अब वे पराया कहने लगे ! साथ निभाने की खाकर कसमे, बात आयी जब रस्मे निबाह की हाले मुफलिसी बयाँ करने लगे........... बेरुखी इस कदर बढ़ गयी हमसे , मुझे अब वे पराया कहने लगे ! ज़िन्दगी जीना तो एक तकल्लुफ था  तजुर्बे हवादिश का जब ज़िक्र हुआ , राह-ए-गुजर को जाया कहने लगे ............. बेरुखी इस कदर बढ़ गयी हमसे , मुझे अब वे पराया कहने लगे !

" यदि होते न लोचन "

१- श्रृंगार शून्य होती सुषमा  संशय हीन होता  यह जग , अन्तर्गगन में  न विचरण करते  विचार चेतन के विहग ; कल्पना हीन होता यह मन ! यदि होते न लोचन  २- न दीनता प्रति  उर में उमड़ती दया, न जन्मती करुणा उठता न भाव कोई, क्लांत होता न अत्न, देख मानव की तृष्णा ! न विछिप्त होता अंतर्मन , यदि होते न लोचन  ३- न कोई कहता , प्रतीक्षा में पथराई आँखें , न कोई दिवा स्वप्न देखता , न होता कोई,  जीवन में अपना - पराया , न किसी को दृष्टिहीन कहता ! भावना शून्य होते जड़-चेतन , यदि होते न लोचन  ४-विटप सम  होता मानव जीवन  अर्थ हीन होता कर्म, उदरपूर्ति  हेतु होते व्यसन , पर न होता कोई मर्म! कहाँ होता चिन्तन - मनन , यदि होते न लोचन  ५-देख पर सुख, न होती ईर्ष्या , न उपजता कोई विषाद, रंग - हीन , स्वप्न- हीन  होता जीवन , न होता आपस में  कोई विवाद! हर्ष-द्वेष रहित होता निश्छल मन , यदि होते न लोचन  ६- न मानव करता, मानवता पर अत्याचार, पुष्प-प्रस्तर का मात्र ,  होता मृदुल-अश्मर प्रहार, दिवस निशा का बोध , कराता मात्र य

राज़ न पूंछो..

हँस रहा हूँ मै आप की महफिल में, आज  मेरे हँसने का राज़ न पूंछो......! जिन्दगी की ग़जल गुनगुनाने चला , निकली जो हलक से आवाज़ न पूंछो ....! कोशिश थी एक हशीं मुशायरे की, गमे शायरी का ये अंदाज़ न पूंछो.......! बजता ही रहा जिन्दगी की धुन पर , रौनके महफिल का साज़ न पूंछो....! आ गयी जो ये बात जुबाँ पर आज , मकशद -ए- बयाँ आज न पूंछो........! हँस रहा हूँ मै आप की महफिल में, आज  मेरे हँसने का राज़ न पूंछो......!

आह्लाद !

व्यथा विकृत करती अंतस को , मनः स्थिति हो उठती विचलित / जीवन संयम में जो था निरत , कर्म  पथ पर हो जाता प्रमिलित// क्षणिक आह्लाद का  गह्वर पाश, संयत जीवन को कर देता बाधित/ हो प्राप्त यदि वह चिर आह्लाद , पूर्ण हो पथ, जिस हेतु है सम्पादित // पाकर मिथ्या को हर्षित है प्रत्यक्ष से, यह तो भ्रम मात्र है अंतस का/ प्राप्त हो जब वह यथार्थ भविष्य जो , जीवन परिष्कृत हो तापस का / जीवन की यह मिथ्या एषणा, कृतिका को देती दृढ सम्बल / सघन हो जाती व्यथा बीथिका , विवृत्त होती तमीशा प्रबल / क्षणिक हर्ष पश्चात सघन विषाद, और कृतिका का कुटिल तांडव/ होकर पंथ त्यक्त चिर आह्लाद से, कर्म पथ से होकर पराभव/ हो प्राप्त जो चिर आह्लाद जीवन से, श्रांत पथिक को मिले पूर्ण विराम / कृतिका का अवगुंठन हो उन्मीलित , हो पूर्ण लक्ष्य जो साश्वत अभिराम //

"आंगन में धूप खिली है "

बहुत दिनों के बाद , आज मेरे भी आंगन में  धूप खिली है/ फैला था कुहरा  अति घनघोर ,था चतुर्दिश  शीत लहर का शोर , कुहासे के छटने पर , सूरज ने ऑंखें खोली है .... बहुत दिनों के बाद , आज मेरे भी आंगन में  धूप खिली है/ शिशिर रातों के  हिम पाटों में  शीत से व्याकुल हो  तप-तप टपकती  जल की बूंदों से  निशा में आकुल हो हमसे आज करती  प्रकृति भी यूँ कुछ  ठिठोली है............ बहुत दिनों के बाद , आज मेरे भी आंगन में  धूप खिली है/ देख कर जलद उड़ते गगन में आम्र कुंजों में मग्न हो, नाच उठे मयूरी / सितारों जड़ी ओधनी  ओढ़ के धरा पर  आयी  हो शाम सिंदूरी  मानो  शृंगारित   हो  नव वधू प्रिय मिलन को चली है......... बहुत दिनों के बाद , आज मेरे भी आंगन में  धूप खिली है/ पौधों पर नव कलियाँ  खिल-खिल कर झूम रही , सरसों की अमराई में तितलियाँ फूलों को चूम रही  मानो प्रकृति ने आज धरा पर  पीली चूनर डाली है .......... बहुत दिनों के बाद , आज मेरे भी आंगन में  धूप खिली है/ नभ में गूँज रहा विहगों का कलरव 

न ग़ज़ल समझे न गीत समझे

मेरे  हालात को  न  ग़ज़ल समझे  न गीत समझे ,..........! वख्त का था क्या तकाज़ा................2 न कोई जज़्बात समझे , न रीत समझे ............!  ये गुज़रे कल के ज़ख्म हैं ................२ जिन्हें न हमदम समझे, न मीत समझे.................! दिल कि बाज़ी में हार गये...............२ फिर भी न हार हम समझे, न जीत समझे ................! बाद मुद्दत के आये अश्क.................२ इन्हें न फाजिल समझे, न प्रीत समझे.............! मेरे  हालात को  न  ग़ज़ल समझे न गीत समझे ,..........!

बाद बिछुड़ने के..........

बाद बिछुड़ने के हुआ मालूम , वो मेरे कितने करीब थे ! था मै नाचीज़ उनके लिए पर, मेरे लिए वो नसीब थे  ! गैरो में गिनता था खुद को मैं , पाया तो वो बड़े अज़ीज़ थे ! थी जो दिले - जागीर पास मेरे , लूटे तो सबसे गरीब थे  ! बाद बिछुड़ने के हुआ मालूम , वो मेरे कितने करीब थे !

उत्कंठा

प्रिये, तुम मेरी  उत्कंठा को समझो; अंतस की व्यथा, जो, छाई है मस्तक पर, कर न  सका  प्रतिकार कभी , उनका जीवन भर ; उस अवचनीय की , दारुण  प्रवंचना को समझो, प्रिये, तुम मेरी  उत्कंठा को समझो; सृजेता नियत , अज्ञात प्रारब्ध का अनुमोदन; असमय पर  महाकाल का  वह काल प्रभंजन; उस व्यथित की विह्वल  वेदना को समझो; प्रिये, तुम मेरी  उत्कंठा को समझो !