क्योँ ना सजा लूँ ग़म ए हस्ती अब्तर ,
जो अशआर मे अश्क-ए-गम इजाद हुए हैं !
रहबर ने गर्दिश-ए- खाकसार बना दिया,
जैसे तूफां के झोकों से दरख्त बर्बाद हुए है !
जैसे तूफां के झोकों से दरख्त बर्बाद हुए है !
हर वक्त जो भी वख्त में मिला वो सब,
गम-ए- फुरकत में मेरे ही इन्दाद हुए हैं !
गम-ए- फुरकत में मेरे ही इन्दाद हुए हैं !
चश्म-ए-दीदार की जादूगिरी को क्या कहें,
शेख और सूफी भी न इनसे आजाद हुए है !
उजड़े ही हैं चमन यहाँ इश्क-ए-राह पर,
कहाँ - कब घरौंदें घास के आबाद हुए हैं !
क्योँ ना सजा लूँ ग़म ए हस्ती अब्तर ,
जो अशआर मे अश्क-ए-गम इजाद हुए हैं !
बेहतरीन ग़ज़ल....
जवाब देंहटाएंदाद हाज़िर है
अनु
abhaar
हटाएंउत्कृष्ट गजलें। हर गजल के भीतर नवीन कल्पना और नवीन संदर्भ। गर्दिश से खाकसार बनना मानो तुफानों से दरख्तों का बर्बाद होना बेहतरीन।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंसाझा करने के लिए आभार!
DR.sahab bahut-bahut abhaar.
हटाएंबहुत प्रभावी उम्दा प्रस्तुति !!!आभार
जवाब देंहटाएंrecent post : भूल जाते है लोग,
चश्म-ए-दीदार की जादूगिरी को क्या कहें,
जवाब देंहटाएंशेख और सूफी भी न इनसे आजाद हुए है !
बिलकुल सच.
चश्म-ए-दीदार की जादूगिरी को क्या कहें,
जवाब देंहटाएंशेख और सूफी भी न इनसे आजाद हुए है ..
वाह क्या बात है ... इस जादोगरी से बचना मुश्किल है ..
वाह, बहुत ही लाजवाब.
जवाब देंहटाएंरामराम.
बेहतरीन ग़ज़ल.. अस्थाना जी
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