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राही अनजान राहों का !


राहें बता रहीं हैं,
कोई गुजरा है 
बड़ी शिद्दत से 
मंजिल की जुस्तजू में !

कतरे-कतरे की 
खारी नमी ,
आज भी उसकी
इन्तजा की हर वो 
दास्ताँ बयाँ कर रही है !

सरगोशियाँ काफूर 
भले हो गईं हों,
गुजरे तूफाँ की 
ताशीर अब भी
सन्नाटों में सिहरन 
बढ़ा रही है !

मंजिल नही वो 
एक जंग थी,
मुकद्दर से 
जिन्दगी की
जिसकी आरजू में 
धडकने बिकती रहीं 
और सांसें चलती रहीं !

टिप्पणियाँ

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    --
    इंजीनियर प्रदीप कुमार साहनी अभी कुछ दिनों के लिए व्यस्त है। इसलिए आज मेरी पसंद के लिंकों में आपका लिंक भी चर्चा मंच पर सम्मिलित किया जा रहा है और आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल बुधवार (03-04-2013) के “शून्य में संसार है” (चर्चा मंच-1203) पर भी होगी!
    सूचनार्थ...सादर..!

    जवाब देंहटाएं
  2. अव्‍यक्‍त गूढ़ भावों का सार्थक प्रकटीकरण। बहुत विचारणीय कविता।

    जवाब देंहटाएं
  3. प्रशंसनीय रचना - बधाई
    नई पोस्ट
    पर आपका स्वगत है
    आज आपके ब्लॉग पर बहुत दिनों बाद आना हुआ अल्प कालीन व्यस्तता के चलते मैं चाह कर भी आपकी रचनाएँ नहीं पढ़ पाया. व्यस्तता अभी बनी हुई है लेकिन मात्रा कम हो गयी है...:-)

    जवाब देंहटाएं

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