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अर्थ हीन होता सृजेता का सृजन ,


१- श्रृंगार शून्य होती सुषमा 
संशय हीन होता 
यह जग ,
अन्तर्गगन में 
न विचरण करते 
विचार चेतन के विहग ;
कल्पना हीन होता यह मन !
यदि होते न लोचन !

२- न दीनता प्रति 
उर में उमड़ती दया,
न जन्मती करुणा
उठता न भाव कोई,
क्लांत होता न अत्न,
देख मानव की तृष्णा !
न विछिप्त होता अंतर्मन ,
यदि होते न लोचन !

३- न कोई कहता ,
प्रतीक्षा में पथराई आँखें ,
न कोई दिवा स्वप्न देखता ,
न होता कोई,
 जीवन में अपना - पराया ,
न किसी को दृष्टिहीन कहता !
भावना शून्य होते जड़-चेतन ,
यदि होते न लोचन !

४-विटप सम 
होता मानव जीवन 
अर्थ हीन होता कर्म,
उदरपूर्ति 
हेतु होते व्यसन ,
पर न होता कोई मर्म!
कहाँ होता चिन्तन - मनन ,
यदि होते न लोचन !

५-देख पर सुख,
न होती ईर्ष्या ,
न उपजता कोई विषाद,
रंग - हीन , स्वप्न- हीन 
होता जीवन ,
न होता आपस में 
कोई विवाद!
हर्ष-द्वेष रहित होता निश्छल मन ,
यदि होते न लोचन !

६- न मानव करता,
मानवता पर अत्याचार,
पुष्प-प्रस्तर का मात्र , 
होता मृदुल-अश्मर प्रहार,
दिवस निशा का बोध ,
कराता मात्र यह,
नीरस स्वर-संचार !
रस हीन होते ये धरा-गगन ,
यदि होते न लोचन !

७- किस हेतु होती अभिव्यक्ति 
होता न जीवन का आधार ,
घायल होती रहती मानवता ,
कौन किस पर करता उपकार ,
तरसती दया, करुणा रोती,
प्रकट न होता कोई आभार!
निष्प्राण तुल्य होता यह जीवन,
यदि होते न लोचन !

८- व्यर्थ होता कलियों पर 
भ्रमरों का गुंजन ,
व्यर्थ होता ऋतुराज का ,
धरा पर आगमन ,
व्यर्थ होता कानन में ,
मयूरों का नर्तन !
कौन सुनता उरों का स्पंदन 
यदि होते न लोचन 

९-श्रृंगार -सुषमा हीन,
पुष्प पल्लवी होती,
यह प्रकृति सुन्दरी 
विधवा सी रोती,
हेतु अस्तित्त्व यह,
मौन धरा सोती!
अर्थ हीन होता सृजेता का सृजन ,
यदि होते न लोचन !

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