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अलफ़ाज़ अपने जख्म दिखाने लगे!

इस दौर में किसका करें ऐतबार;
जब अपने ही आजमाने लगे!

भरोसा तो गैरों का भी था बहुत;
अब बेगाने हक जताने लगे!

हर कोई तो है गम जदा यहाँ पर;
कौन किसे दास्ताँ सुनाने लगे!

लफ्जों को जो हम बयाँ करने चले;
अलफ़ाज़ अपने जख्म दिखाने लगे!

रूठ जाएगी एक दिन ये जिन्दगी,
हिसाब सांसों का लगाने लगे!

टिप्पणियाँ

  1. वाह ,,,, बहुत खूब, बेहतरीन प्रस्तुति,,,,,आस्थाना जी,,,

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  2. अब इस जिंदगी का हिसाब किताब लगाना छोड़ दीजिए

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