सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

विभ्रम

स्वप्न लोक से आकर तुम;
मेरी सुप्त तृषा जगा जाते हो!
स्मृति से तुम हृद तंत्री के;
आछिन्न तार बजा जाते हो!!

कर प्रखर व्यतीत क्षणों से,
सोती बेसुध पीड़ा को !
शून्य हृदय को कर स्वर प्लावित;
कर प्रखर वेदन क्रीडा को !

जीवन संशय के विस्मय से;
क्षण-क्षण होता व्योमोहित !
पथ पर पग देते ही स्मृति,
कर देती अंतस को व्यथित !

द्युति आछिन्न हुए सब;
नक्षत्र गण भी निबड़े तम में!
नहीं प्रतिभास दीखता ,
है अब जीवन के सरगम में!

हर क्षण डसने को तैयार खड़ी,
श्वास -श्वास पर काल व्याली!
विवृत है तम का अवगुंठन यहाँ;
ज्यों प्रलय काल की निशा काली!

नहीं बजती अब जीवन में;
सप्त स्वरों की राग लहरी !
कर्म कृपाण हुयी गति मंद,
अनिश्चित वेदना सी ठहरी !

अतीत का उपालम्भ कैसा,
त्यक्त कर व्यर्थ चिन्तन !
भ्रम से न बन अपभ्रंश तू;
यह सब है प्रत्यक्ष मंथन !

व्यर्थ भ्रम है जीवन-मरण,
कर तू निज पथ कर्म वरण!
बना स्यन्दन यह मानव तन 
हो पूर्ण लक्ष्य पथ संवरण !

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मतलब का मतलब......

 मतलब की दुनिया है-जानते सभी हैं, फिर भी यहाँ मतलब निकालते सभी हैं। अपनापन एक दिखावा भर है फिर भी, जाहिर भले हो लेकिन जताते सभी हैं। झूठी शान -ओ-शौकत चंद लम्हों की है, ये जानते हुए भी दिखाते सभी हैं। नहीं रहेगी ये दौलत सदा किसी की,  जमाने में पाकर इठलाते सभी हैं। मौत है मुत्मइन इक न इक दिन आएगी, न जाने क्यूँ मातम मनाते सभी हैं।

स्त्री !

चाणक्य ! तुमने कितनी , सहजता से कर दिया था; एक स्त्री की जीविका का विभाजन ! पर, तुम भूल गये! या तुम्हारे स्वार्थी पुरुष ने उसकी आवश्यकताओं और आकाँक्षाओं को नहीं देखा था! तुम्हें तनिक भी, उसका विचार नही आया; दिन - रात सब उसके तुमने अपने हिस्से कर लिए! और उसका एक पल भी नहीं छोड़ा उसके स्वयं के जीवन जीने के लिए!

पानी वाला घर :

समूह में विलाप करती स्त्रियों का स्‍वर भले ही एक है उनका रोना एक नहीं... रो रही होती है स्‍त्री अपनी-अपनी वजह से सामूहिक बहाने पर.... कि रोना जो उसने बड़े धैर्य से बचाए रखा, समेटकर रखा अपने तईं... कितने ही मौकों का, इस मौके के लिए...।  बेमौका नहीं रोती स्‍त्री.... मौके तलाशकर रोती है धु्आं हो कि छौंक की तीखी गंध...या स्‍नानघर का टपकता नल...। पानियों से बनी है स्‍त्री बर्फ हो जाए कि भाप पानी बना रहता है भीतर स्‍त्री पानी का घर है और घर स्‍त्री की सीमा....। स्‍त्री पानी को बेघर नहीं कर सकती पानी घर बदलता नहीं....। विलाप.... नदी का किनारों तक आकर लौट जाना है तटबंधों पर लगे मेले बांध लेते हैं उसे याद दिलाते हैं कि- उसका बहना एक उत्‍सव है उसका होना एक मंगल नदी को नदी में ही रहना है पानी को घर में रहना है और घर बंधा रहता है स्‍त्री के होने तक...। घर का आंगन सीमाएं तोड़कर नहीं जाता गली में.... गली नहीं आती कभी पलकों के द्वार हठात खोलकर आंगन तक...। घुटन को न कह पाने की घुटन उसका अतिरिक्‍त हिस्‍सा है... स्‍त्री गली में झांकती है, गलियां सब आखिरी सिरे पर बन्‍द हैं....। ....गली की उस ओ...